लोकसंस्कृति के संरक्षण का अनूठा प्रयास
गोरखपुर से कुशीनगर होते हुए बिहार जाने वाले नेशनल हाइवे पर फाजिलनगर कस्बे से जो सड़क दक्षिण की तरफ मुड़ती है वह जोगिया गांव ले जाती है। यह नेशनल हाइवे अब फोर लेन बाईपास में बदल चुका है। अब इस पर गाडियां 100 किमी से भी ज्यादा रफतार से दौडती हैं। इस पर गुजरने वाले लोगों को इंडिया के विकास का फील गुड हो सकता है। पर यदि आप वह इस फोरलेन हाइवे से उतर कर गांवों की तरफ बढें तो आपको दूसरी तरफ की सचाई का पता लगेगा जो इस देश की अस्सी फीसदी जनता की सचाई है। फिलहाल बात जोगिया गांव की हो रही है। यह गांव पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे गांवों जैसा ही है। हाइवे से उतर कर गांव जाने के लिए आपके पास यदि अपना साधन नहीं है तो पैदल चलना पडेगा। गांव की सड़क एक छोटी नहर के समानान्तर आगे बढती है जिसमें कभी -कभार ही पानी दिखाई देता है हालांकि दो वर्ष पहले मनरेगा के पैसे से इसकी झराई का काम हो चुका है। पांच वर्ष पहले जनसंस्कृति मंच के सहयोग से इस गांव के निवासी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लोकरंग नाम का वार्षिक कार्यक्रम शुरू किया था। उद्देश्य यह था कि लोकसंस्कृति का संरक्षण करते हुए उसका विकास किया जाय और भोजपुरी के नाम पर जो फूहड़पन का प्रचार हो रहा है उसका प्रतिकार किया जाय। यह आसान काम नहीं था लेकिन गांव में ऐसे लोगों की एक टोली थी जो अपने तई लगातार गांव में कुछ न कुछ नया करने का प्रयास करती रहती थी । चाहे वह पुस्तकालय संचालित करने की बात हो, साहूकारों के चंगुल में फंसे गरीबों को मुक्त कराने का काम हो, गरीब छात्रों को पढ़ाई के लिये प्रेरित करने के लिये छात्रवृत्ति प्रदान करने की बात हो या कुछ शातिर लोगों द्वारा मानसिक रूप से गांव की एक बीमार महिला को देवी घोषित कर उसके आशीर्वाद से असाध्य बीमारियों और लोगों के हर तरह के कष्ट दूर हो जाने की अफवाह फैलाकार महीनों तक भारी जमावड़ा कर धनउगाही के षडयंत्र का पर्दाफाश करने का मामला रहा हो।
पहला लोकरंग कार्यक्रम वर्ष 2008 में हुआ। इसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन लोकगीतों, लोक नृत्यों, लोककलाओं को मंच दिया गया जो अब गायब हो रहे हैं। साथ ही इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रही जनवादी चेतना से लैस सांस्कृतिक टीमों को बुलाया गया था। इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्यकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हुए। कार्यक्रम स्थल के रूप में गांव के ही एक नौजवान मंजूर अली के घर के अहाते का चयन किया गया। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए गांव के लोग ही नहीं बल्कि आस-पास के लोग भी उमड़ पड़े। तीन आयोजनों के बाद ही कार्यक्रम स्थल छोटा पड़ने लगा तो सुभाष चन्द्र कुशावाहा ने गांव के किनारे अपनी जमीन इस काम के लिए दे दी और यहां पर एक विशाल मंच और कलाकारों के ठहरने के लिए दो हाल भी बन गए। इस जगह पर पिछले दो वर्ष से लोकरंग में हिस्सेदारी के लिए हजारों लोग आते हैं। इस वर्ष यह आयोजन 12 और 13 मई को हुआ। लोकरंग का उद्घाटन प्रख्यात आलोचक एवं जनसंस्कृति मंच के राष्टीय अध्यक्ष मैनेजर पांडेय ने किया। इस अवसर पर प्रो मैनेजर पांडेय, जनसंस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष राजेन्द्र कुमार, महासचिव प्रणय कृष्ण, आलोचक रविभूषण ने लोकरंग की स्मारिका का लोकार्पण भी किया। पहला कार्यक्रम जंतसार गीत था जिसे गांव की ही मतिरानी, शान्ति और अन्य महिलाओं ने प्रस्तुत किया। मंच पर जांता पर गेहूं पीसते हुए इन महिलाओं ने अपने गीत में विदेश गए पिया से अपनी व्यथा के कहन को पिरोया था। जंतसार के बाद कुशीनगर जिले के माधोपुर सेखवनिया गांव के रामवृक्ष कुशवाहा और उनके सहयोगियों ने फरूआही नृत्य प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति की सबसे खास बात यह रही कि इसमें नर्तक धर्मवीर, मुकेश, सतेन्द्र, सनी किशोर वय के थे और उन्होंने गोरख पांडेय के मशहूर गीत जनता के आवे पलटनिया पर झूमकर नृत्य किया जिसको बिरहा के तर्ज पर गाया गया था। फरूआही से मिलता-जुलता लोकनृत्य अहिरउ है जिसे छेदीलाल यादव और उनकी टीम ने प्रस्तुत किया। बलिया से आई सांस्कृतिक संस्था संकल्प ने भोजपुरी के परम्परागत गीतों की शानदार प्रस्तुति से सबका दिल जीत लिया। विदेशिया नाटक की प्रस्तुति के लिए काफी सुर्खिया बटोर चुकी इस टीम ने हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना पर आधारित एक नाटक मै नरक से बोल रहा का भी मंचन किया। इस नाटक में उपभोक्तावादी संस्कृति पर चोट की गई है। पटना से आई सांस्कृतिक टीम डिवाइन सोशल डेवलपमेंट आर्गनाइजेशन ने मेहरारू की दुर्दशा नामक नाटक का मंचन किया। इस नाटक में शोषण व अन्याय के खिलाफ नारी के प्रतिकार को स्वर दिया गया है। नाटक का निर्देशन सुमन कुमार ने किया था। हिरावल ने गोरख पांडेय, रमता जी, रामकुमार कृषक के जनगीतों को गाया। दूसरे दिन प्रातः 11 बजे से विचारगोष्ठी प्रारंभ हुई । लोकरंग में हर वर्ष संगोष्ठी भी होती है। इस बार का विषय ‘वैश्वीकरण में लोक संस्कृति का उज़ना’ रखा गया था। संगोष्ठी की अध्यक्षता प्रो मैनेजर पांडेय ने की। उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा कि लोक संस्कृति प्रकृति के साथ रची बसी होती है। जब जब मनुष्य पर प्रहार होता है वह प्रकृति की शरण में जाकर उससे सांत्वना पाता है, उससे साहस और ऊर्जा पाता है। इसके बरक्स आभिजात्य संस्कृति व साहित्य परलोकवादी है। जब-जब उसकी प्राणधारा सूख जाती है तो वह लोकरूपों से ही ताकत ग्रहण करती है। लोक की रक्षा कर ही लोक संस्कृति की रक्षा की जा सकती है। उन्होंने कहा कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में पूंजी के भूमण्डलीकरण के साथ साथ पूरी दुनिया का अमेरिकीकरण की भी कोशिश चल रही है। दरअसल अमेरिका की कोई लोकसंस्कृति है ही नही। वहां जो लोकसंस्कृति है, वह अश्वेतों की है, जो अफ्रीका से दास बनाकर अमेरिका लाए गए। इसे अपने जीवन को बचाने की जद्दोजहद में रचा गया है। पूंजीवाद की विचारधारा में मनुष्य का कोई सम्मान नहीं है। इस व्यवस्था में हर कमजोर को मजबूत खा जाता है। पूंजीवाद में सिर्फ सफल व्यक्ति की कीमत है, सार्थक आदमी की नहीं। उन्होंने कहा कि संस्कृतिकर्मियों को अपना दायित्व तय करना है और जनता को उसकी अपार शक्ति का अहसास दिलाने का काम करना है। इस देश की जनता ने अंग्रेजीराज को पराजित किया, वह अमेरिकी साम्राज्यवाद का भी सामना कर सकती है। आरंभ में आधार वक्तव्य देते हुए आलोचक रविभूषण ने कहा कि भूमण्डलीकरण पूरे लोक पर प्रहार करता है। यह हमारी बोली-भाषा, पहनावे से लेकर गीत-संगीत, साहित्य किसी को नहीं छोड़ता। विश्व पूंजी का श्रम से कोई संबंध नहीं। इसके जरिए हमारी संस्कृति को तबाह कने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा कि सम्मान, आजादी, रोजी-रोटी के लिए जनता द्वारा किए जा रहे संघर्षों से ही बचेगी। संस्कृतिकर्मी सुधीर सुमन ने कहा कि सिर्फ लोक संस्कृतियों के संरक्षण से ही नहीं चलेगा। बल्कि परिवर्तन के संघर्ष को उद्वेलित करने में इसकी भूमिका देखी जानी चाहिए। इसके लिए हमें जनसंघर्षों से जु़ड़ना होगा। रीवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष दिनेश कुशवाह ने दो कविताओं के जरिए अपनी बात की। पत्रकार अशोक चौधरी ने कहा कि लोकसंस्कृति को लोक ही गढ़ता है और वही उसे बचाता भी है। अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसियेशन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन ने भूमण्डलीकरण के दौरान किसानों की आत्महत्याओं, साम्प्रदायिक नरसंहार की घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसके खिलाफ जनसंघर्षों को रेखांकित किया। भोजपुरी साहित्य के विशेषज्ञ डा तैयब हुसेन ने कहा कि हमेशा याद रखना चाहिए कि लोकसंस्कृति ने हर संकट के समय अपने स्तर पर ल़ड़ाई लड़़ी है। जबकि शिष्ट साहित्य ने इसमें हमेशा कोताही की है। भूमण्डलीकरण के चलते भाषाई नस्लवाद पैदा हो रहा है। जिसपर खास ध्यान देने की जरूरत है। जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष प्रो0 राजेन्द्र कुमार ने कहा कि अपने समय के खराब बताने से ही काम नहीं चलेगा। इस समय सही राजनीतिक चेतना की सबसे अधिक जरूरत है। उन्होंने मिथक¨ं की पुनरव्याख्यायित करने से आगाह करते हुए कहा कि कई बार यह उन्हें नया जीवन दे देते हैं। लोक कलाओं की कुछ शैलियों को अपनाकर लोकगीत, नृत्य, नाटकों को जनवादी चेतना से लैस बनाने की जरूरत और जनता के संघर्षों की तरह धारदार सांस्कृतिक आंदोलन पर बल दिया। संगोष्ठी का संचालन समकालीन जनमत के संपादकीय मण्डल के सदस्य के0 के0 पाण्डेय ने किया। इस मौके पर जोगिया के इसराइल सहित कई अन्य लोगों ने अपनी बात कही। जोगिया गांव के विशाल मुक्ताकाशी मंच पर रविवार को लोकरंग के दूसरे दिन बाकुम कवित्त और जोगी गायन ने हजारों की संख्या में जुटे दर्शकों को लुप्त हो रही इस विधा से परिचित कराया तो आजमगढ से आई इप्टा की टीम ने जांघिया और धोबियाऊ नृत्य प्रस्तुत कर लोगों को रोमांचित कर दिया। बाकुम एक ऐसी लोक शैली है जिसमें लोकगायक घर-घर घूमकर अपनी कविता से लोगों का न सिर्फ मनोरंजन करता था बल्कि सामाजिक विडम्बनाओं, विद्रूपताओं पर कठोर प्रहार भी करता था। इस लोक शैली के वाहक अब इक्का-दुक्का ही बचे हैं। इन्ही में से एक कुशीनगर के ईंट भट्ठा मजदूर हरेन्द्र ने बाकुम की प्रस्तुति की। कौडियों से टांके गए काले कपडे पहन कर हरेन्द्र मंच पर आए। उनके एक हाथ में लाठी थी तो दूसरे हाथ में खन-खन की आवाज करने वाला डिब्बा। उन्होंने गांवों में भ्रष्टाचार पर अपनी कविताओं के जरिए करारा प्रहार किया। सारंगी बजाते हुए गांव-गांव घूमकर गोपीचन्द, भर्तहरि के बाबा गोरखनाथ के प्रभाव में राज-पाट छोड़कर सन्यासी हो जाने का आख्यान गाने वाले जोगियों की स्मृति सफाई लाल जोगी और सरदार शाह की प्रस्तुति से ताजा हुई। फरूआही और अहिरऊ से मिलता जुलता लोकनृत्य जांघिया और धोबियाऊ को आजमगढ की इप्टा ने प्रस्तुत किया। इस नृत्य में नर्तकों की पैरों की चपलता देखने लायक थी। आयोजन के दूसरे दिन भी पटना की सांस्कृति संस्था हिरावल के जनगीतों और बलिया की संकल्प संस्था के परम्परागत लोकगीतों ने खूब समां बांधा। कार्यक्रम की अंतिम प्रस्तुति हिरावल के नाटक कामधेनु की प्रस्तुति थी। संतोष झा द्वारा निर्देशित इस नाटक में राजनीति के अपराधी करण पर करारा प्रहार किया गया था। लोकरंग सांस्कृतिक समिति के सदस्यों और बाहर से आए कलाकारों को स्मृति चिन्ह देने के साथ पांचवे लोकरंग का समापन हुआ।
मनोज कुमार सिंह
71 एम.आई.जी.. राप्तीनगर, प्रथम चरण गोरखपुर 273003