जोगिया से बहती ‘लोकरंग’ की बयार
कुशीनगर के जोगिया गांव में लगातार चैथी बार लोकरंग का आयोजन 26 और 27 अप्रैल को संपन्न हुआ। इस बार का आयोजन, विगत के आयोजनों से ज्यादा व्यवस्थित, भव्य और विविधता लिये हुये था। इस बार की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की अगुवाई वाली आयोजक संस्था -‘लोकरंग सांस्कृतिक समिति’ ने एक एकड़ जमीन में एक विशाल परिसर और उसमें एक विशाल मुक्ताकाशी मंच का निर्माण करा दिया था। इससे लोक कलाकारों को अपने कार्यक्रम के मंचन और दर्शकों को कार्यक्रम का पूरा आनंद लेने का मौका मिला। गांव पधारने वाले कलाकारों और साहित्यकारों का गांव वालों ने टीका लगाकर और गाजे-बाजे के साथ भव्य स्वागत किया ।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण कवि रामधार त्रिपाठी‘जीवन’ की याद में समर्पित लोकरंग का उद्घाटन जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं प्रख्यात आलोचक प्रो0 मैनेजर पांडेय ने किया। इस मौके पर उन्होंने ‘लोकरंग-2’ पुस्तक और ‘लोकरंग 2011’ स्मारिका का विमोचन भी किया। उद्घाटन के मौके पर उन्होंने कहा कि लोक कलाओं में समाज को जोड़ने की शक्ति होती है। जैसे कि विद्यापति मैथली के कवि हैं लेकिन देश के हर हिस्से में सुने और समझे जाते हैं। इसी प्रकार मीराबाई राजस्थान से लेकर मिथिला की कवि हैं। प्रो0 पांडेय ने लोक कलाओं की तीन खास विशेषताओं-शक्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता का जिक्र करते हुए कहा कि आज लोक कला और लोक संस्कृति पर सबसे अधिक खतरा बाजार का है। वह इसे निगल जाना चाहता है। लोकरंग जैसे कार्यक्रम लोक कलाओं को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रो0 पांडेय के उद्घाटन वक्तव्य के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरूआत गांव की लड़कियों द्वारा प्रस्तुत सोहर और कजरी से हुई। इसके बाद पोखर भिंडा मटिहिनिया गांव से आए चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों ने खजड़ी वादन के साथ निर्गुन प्रस्तुत किया। पहले दिन के कार्यक्रम का प्रमुख आकर्षण पटना के निर्माण कला मंच की नाट्य प्रस्तुति बिदेसिया रही। संगीत प्रधान लोक नाटकों की देश और विदेश में सैकड़ों प्रस्तुतियां कर चुकी इस संस्था ने भिखारी ठाकुर के तमाशा बिदेसिया को जोगिया में जीवंत कर दिया। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाट्य प्रस्तुति में काम की तलाश में कलकत्ता जाने वाले युवा मजदूर की पत्नी की वेदना, दुख, पीड़ा बड़ी शिद्दत से व्यक्त हुई। इस नाट्य संस्था ने लोकरंग की दूसरी शाम को हरसिंगार नाटक का मंचन किया। यह नाटक पारम्परिक लोक नाट्य डोमकथ के हरबिसन दम्पति की कहनी के जरिए स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की जटिलताओं को सामने लाता है। दोनों ही नाटकों में निर्माण कला मंच के कलाकारों ने अपने अभिनय से ग्रामीण दर्शकों को सम्मोहित सा कर लिया।
दो दिवसीय कार्यक्रम में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों ने महोबा शैली का आल्हा गायन प्रस्तुत किया तो फैजाबाद से अवधी लोक समूह ने फरुआही पेश की। आल्हा गायन की बुंदेलखंड में मुख्यतः चार शैलियां-महोबा, करगवां, दतिया और सागर गायन प्रचलित हैं। ढोलक और मंजीरें के थाप पर चन्द्रभान सिंह ने ओजस्वी स्वर में आल्हा, उदल द्वारा अपने पिता के हत्या का बदला लिए जाने की लोककथा सुना कर लोगों को रोमांचित कर दिया। अवधी लोक समूह द्वारा प्रस्तुत फरुआही एकदम नई शैली का था और इस समूह ने परम्परागत फरुआही नृत्य व गीत में कई प्रयोग किए थे। नृत्य के दौरान कलाकरों ने हैरतअंगेज करतब दिखाए। नए वाद्य यंत्रों और नृत्य की नई भंगिमाओं ने लोगों का मन मोह लिया। बुन्देली कछवाहा समाज का अवधूती शब्दों का गायन सुनना एक नए अनुभव से गुजरना था। ढपली, किकहरी जैसे वाद्य यंत्रों द्वारा दाता साईं की अराधना कछवाही समाज सदियों से करता आया है । दाता साईं के शब्द बहुत ही गूढ हैं और इस संगीत व साहित्य परम्परा पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। लोकरंग में मंगल मास्टर और अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों की प्रस्तुति की। लोकरंग में आए सभी कलाकारों को आयोजन समिति द्वारा स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।
लोकरंग के दूसरे दिन दोपहर में ‘लोकसंस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता’ पर विचारोत्तेजक संगोष्ठी हुई। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रो0 मैनेजर पांडेय ने कहा कि मिथकों की बात करते समय लोक गाथा, लोकरीति, लोकविश्वास, लोकरूढि को अलग-अलग रख कर विचार करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि कथा स्वभाव से ही मिथकीय है, इसलिए कथा में सर्वाधिक मिथक गढ़े गए। प्रो पांडेय ने कहा कि सत्ता, लोक, धन, सम्पदा का ही अपहरण नहीं करता बल्कि कला और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करता है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सत्ता ने लोकसंस्कृति और मिथकों की पहले उपेक्षा की, फिर विरोध किया और उससे भी काम नहीं चला तो विकृत करने का प्रयास किया। उन्होंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक मिथकों की चर्चा करते हुए कहा कि मिथकों को पवित्र मानकर उस पर जल चढाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर दिया।
इसके पूर्व वरिष्ठ लेखक डा0 तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि लोक संस्कृति में सब कुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। उन्होंने मिथक की तुलन उस चाकू की तरह की जो डाक्टर के हाथ में होने पर जान बचाने के काम आता है और हत्यारें के पास होने पर जान लेने के। युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने अपसंस्कृति और जनसंस्कृति के बीच निरन्तर टकराव की बात करते हुए कहा कि मिथकों का सबसे अधिक निर्माण दलित साहित्य ने किया है। उन्होंने लोकसंस्कृति की संशलिष्टता को राजनीति की तरह ढालने के प्रयास का विरोध किया। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि मिथकों का इस्तेमाल सधे ढंग से करना होगा। कवि एवं रीवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष दिनेश कुशवाह ने कहा कि मिथक लोक साहित्य में ऐसे रचे-बसे होते हैं कि सत्य से अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। उन्होंने इस बात से असहमति जताई कि मिथकों का कोई वैज्ञानिक आधार है। हाजीपुर से आए डा0 प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन ने कहा कि विज्ञान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले, मिथक हमारे जीवन को संजीवनी देते रहेंगे। गलत या विकृत मिथक खोटे सिक्कों की तरह नहीं चलते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने संगोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि समाज को मिथकों के जंजाल से निकालकर ठोस यथार्थ पर खड़ा करने की जरूरत है। उन्होंने पूरे बहस को यह कह कर एक नई दिशा दे दी कि आखिर यह कथन एक मिथक ही तो है कि पूंजीवाद समाप्त नहीं हो सकता । यह मिथक तो आधुनिक सत्ताओं द्वारा सचेतन पर गढ़े गए हैं जिनको तोड़ना आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। मिथ के समाज शास्त्र पर उल्लेखनीय काम करने वाले डा0 गोरेलाल चंदेल ने कहा कि पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोक मिथक में नहीं आता है। लोकसंस्कृति में मिथ लोक को उर्जा एवं शक्ति देता है। जो लोक के लिए उपयोगी है वही लोकसंस्कृति में बना रहता है। छत्तीसगढ़ी गौरा उत्सव के कई सन्दर्भों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इतिहास, मिथ और समाज शास्त्र का निरन्तर द्वंद रहता है और इसके भीतर से मिथ का लोकव्यापीकरण होता है।
गोष्ठी का संचालन कवि एवं जनसंस्कृति मंच लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि जनसंस्कृति श्रम और संघर्ष की संस्कृति है। ईश्वरीय सत्ता को स्थापित करने वालों ने मिथकों का जाल बुना है लेकिन इसके बरक्स जनता ने अपने मिथक रचे और गढे़ हैं। संगोष्ठी में डा दुखी शुक्ल, सुधांशु कुमार चक्रवर्ती ने भी अपने विचार रखे। धन्यवाद ज्ञापन लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष एवं कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने किया।
मनोज कुमार सिंह
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