लोकरंग 2014, एक यादगार आयोजन
कुशीनगर के एक साधारण से गांव, जोगिया जनूबी पट्टी में लोकरंग 2014 का भव्य और शानदार आयोजन, देश स्तर का शायद पहला आयोजन कहा जा सकता है, जहां लोक संस्कृतियों को सहेजने, उनके सामाजिक और जनपक्षधर स्वरूप को मंच पर प्रस्तुत कर, फूहड़पन के विरुद्ध एक अभियान चलाने जैसा पहल लिया गया है । जोगिया गांव विगत सात सालों से लोक-उत्सव का रूप ले चुका है । आकर्षक ढंग से भित्ति चित्रों से सजे जोगिया गांव के विशाल मुक्ताकाशी मंच पर लोकरंग-2014 में दो रात लोक नृत्य और गायकी के विभिन्न रूपों की प्रस्तुति के साथ-साथ ‘अमली’ और ‘चरणदास चोर’ नाटक देखने का मौका हजारों की संख्या में ग्रामीण जनता को मिला। इस बार मंच पर पंवारा और मुहर्रम के दौरान गाए जाने वाले जारी गीत की किसी मंच पर पहली प्रस्तुति भी हुई। गोबर और मिट्टी से डिजाइन किए गए मंच को आकर्षक स्वरूप प्रदान किया था, गाजीपुर से आये राजकुमार सिंह की टीम ने ।
पहली रात, 27 मई
सातवें लोकरंग समारोह का शानदार आगाज 27 मई की रात नौ बजे हुआ। प्रख्यात कवि डा. केदारनाथ सिंह ने समारोह का उद्घाटन और लोकरंग स्मारिका का विमोचन किया। इस मौके पर मंच पर जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण, बीएचयू के हिन्दी के प्रोफेसर सदानन्द शाही, वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन, आगरा से आए वरिष्ठ रंगकर्मी डा. बिरजू, बाल्मीकि महतो, अमर उजाला गोरखपुर के सम्पादक प्रभात सिंह, बी.आर.डी. मेडिकल कालेज के प्राचार्य प्रो. के.पी. कुशवाहा उपस्थित थे।
लोकरंग का उद्घाटन करते हुए डा. केदारनाथ सिंह ने कहा कि लोकरंग के आयोजन को वह एक बड़ी सांस्कृतिक घटना के रूप मेें देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह अपने गांव चकिया से जोगिया गांव आए हैं और यहां आना बहुत अच्छा लग रहा है। उन्होंने इस जिले में 14 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया है। आज से 40 वर्ष पहले उनको इस जिले को छोड़कर नई दिल्ली जाना हुआ। आज वह अपनी मिट्टी को यहां प्रणाम करने आए हैं। केरल के एक गांव में वर्ष 1980 में हुए बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रम को याद करते हुए उन्होंने कहा लोकरंग जैसे आयोजन की अनुगंूज जल्द ही पूरे हिन्दी पट्टी में सुनाई देगी।
इसके पहले लोकरंग समारोह के आयोजक लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने सभी अतिथियों का स्वागत किया और इस वर्ष के आयोजन की रूपरेखा रखी। कार्यक्रम के उद्घाटन व स्मारिका के विमोचन के बाद सबसे पहला कार्यक्रम सोहर गायन का हुआ जिसे गांव की ही मनीषा, निशा, अंकिता, रूचि, गरिमा और संगीता ने प्रस्तुत किया। गांव की लड़कियां और महिलाएं हर वर्ष लोक कला का कोई न कोई रूप यहां प्रस्तुत करती रही हैं। इस बार गांव के युवाओं ने एक नाटक ‘बाबागिरी’ प्रस्तुत किया। यह नाटक ढोंगी बाबाओं और मीडिया पर करारा व्यंग्य करता है। इस नाटक को गांव के युवाओं ने 15 दिन के नाटक वर्कशाप में तैयार किया था। युवाओं को अभिनय का प्रशिक्षण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से आए घनश्याम और राकेश साहू ने दिया था। पहली रात का मुख्य आकर्षण नागेश्वर यादव और उनके साथियों द्वारा प्रस्तुत फरूआही रही। पहली बार इस फरूआही में जनगीत का प्रयोग किया गया। फरूआही नृत्य प्रस्तुत करने वाले कलाकारों ने माई रे माई बिहान होई कहिया, भेडि़यन से खाली सिवान होई कहिया व जाग जाग अब तू मजूर भइया गीत पर जबर्दस्त नृत्य किया और फरूआही की परम्परा के मुताबिक नृत्य करते हुए शारीरिक कौशल के कई हैरतअंगेज करतब दिखाए। बिहार के गोपालगंज जिला के पड़रिया गांव से आए भोला दास ने संत कबीर के निर्गुन गाकर लोगों का दिल जीत लिया। देवरिया जिले के नौतन हथियागढ़ गांव से आए शिक्षक जितेन्द्र प्रजापति ने क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय के गीतों को गाकर लोगों में जोश भर दिया। हर वर्ष की परम्परा के मुताबिक 27 मई की रात एक नाटक का मंचन हुआ। कला जागरण मंच, पटना की टीम ने हृषिकेश सुलभ रचित नाटक ‘अमली’ का मंचन किया। नाटक का निर्देशन सुमन कुमार ने किया। अमली नाटक सामंती शोषण और अत्याचार में पिसती स्त्री ‘अमली’ की गाथा है जो गांव के दो सामंतों के हर तरह के शोषण की शिकार होती है। दोनों सामंत उसकी जमीन को हड़प लेते हैं और जमीन हड़पने की होड़ में वे गांव के माहौल को साम्प्रदायिक बना देते हैं और फिर आपस में समझौता कर अमली को बदचलन करार दे उसे गांव से बाहर खदेड़ देते हैं।
28 मई को प्रातः 11 बजे से गांव में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका विषय था-‘लोक नाट्यों की परम्परा और परिवर्तन की आवश्यकता ‘ । गोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि नौटंकी के माध्यम से सबसे गरीब लोगों के नायकत्व को सामने लाना होगा । उन्होंने कहा कि लोक नाट्य स्वभावतः अपने आपको बदलते रहता है। यह अपने सामाजिक व राजनीतिक परिवेश के अनुसार अपने को अनुकूलित करता है और लोक से तत्व ग्रहण करता है लेकिन आज लोक नाट्य को गरीब लोगों की जिंदगी को अभिव्यक्ति करने के लिए लोक रूपों की तलाश करनी होगी। सतत बदलाव के बीच अपने को रखते हुए सचेत रूप से सबसे ज्यादा गरीब लोगों के नायकत्व को सामने लाना ही आज सही दिशा है। उन्होंने कहा अभी हुए चुनाव में चुने गए लोकसभा के 543 सांसदों में से 442 करोड़पति हैं तो दूसरी तरफ 30 करोड़ लोग सिर्फ 30 रुपए रोज पर गुजारा करने पर विवश हैं। इस चुनाव में पूंजी की सत्ता को घर-घर पहुंचाने का एक बड़ा नाटक खेला गया। पूंजी की सत्ता वेष बदलकर गरीब आदमी बन कर घूम रही है ताकि लोग यह नहीं देख सकें कि उसे किसने खड़ा किया है। पूंजी की सत्ता ने एक बेहतर नाटक पेश किया है। हमें इस चुनौती को स्वीकार करते हुए करोड़ों गरीब जनता की आवाज बनने का काम करना होगा। लोक नाट्य को भविष्य के भारत, हमारे अरमानों, सामाजिक वंचना के शिकार, साम्प्रदायिक चेतना के हमले के शिकार लोगों की आवाज बनाना होगा। उन्होंने लोकरंग के आयोजन को बड़े सांस्कृतिक आंदोलन में बदलने की जरूरत पर बल दिया।
बिहार से आए संस्कृतिकर्मी बाल्मीकि महतो ने कहा कि लोक नाट्य में अभी सिर्फ प्रदर्शन के क्षेत्र में कार्य हो रहा है। शोध और सृजन का बुनियादी काम कमजोर है। आज लोक नाट्य में जो परिवर्तन हो रहे हैं वह सकारात्मक नहीं है। जनता की चेतना को उन्नत करने के उद्देश्य से इसमें परिवर्तन होना चाहिए न कि इसे कुंद करने के लिए। पत्रिका ‘लेखन’ के सम्पादक मोतीलाल ने कहा कि लोक नाट्य जिसकी जरूरत है, वही रचता है, वही उसका भागीदार होता है और वही उसे देखता है। लोक नाट्य के बिना लोक में प्रवेश नहीं किया जा सकता। उन्होंने लोक नाट्य पर बाजार के हमले के प्रति सचेत किया।
भगवान महावीर पी.जी. कालेज फाजिलनगर के हिन्दी के विभागाध्यक्ष डा मुन्ना तिवारी ने कहा कि लोक की चेतना कहती कम है, सम्पे्रषित ज्यादा करती है। यह अनुकरणीय के बजाय अनुकीर्तन करती है। आज लोक नाट्य का महत्व लोक में कम हुआ है और वह लोक से कटता जा रहा है जो गंभीर चिंता का विषय है। बेगूसराय से आए रंगकर्मी दीपक सिंह ने लोकगायन में अश्लीलता के मुद्दे को उठाया और कहा कि लोक नाट्य की जमीनी ताकत को पहचानने और उसे परिमार्जित करने के लिए काम करने की जरूरत है। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि लोक नाट्य में सृजनात्मक स्तर पर ठहराव आया है। बाजार इसे हाईजैक करने की कोशिश कर रहा है। लोक कला को समृद्ध और विकसित करने की चुनौती पहले से और कठिन हुई है। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने कहा कि लोक नाट्यों पर ही संकट नहीं है हमारे पूरे जीवन पर हमला हो रहा है। हमारे दिमाग को पूंजी की सत्ता अपने हिसाब से बनाने की कोशिश कर रही है। टेलीविजन, सिनेमा में एक अभासी जीवन, परिवार को गढ़ा जा रहा है और उसे वास्तविक बना देने की कोशिश हो रही है। यह एक बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है।
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे आगरा से आए रंगकर्मी डा. बृज बिहारी वर्मा बिरजू ने विस्तार से लोक नाट्यों की परम्परा का जिक्र करते हुए कहा कि नौटंकी लोक नाट्य की प्रमुख विधा है जिसमें समाज द्वारा बहिष्कृत स्त्रियां प्रमुख भूमिका में होती हैं। उन्होंने सिनेमा, दूरदर्शन को लोक नाट्य के अस्तित्व के लिए अवरोधक बताया और लोक नाट्य में इस दौर में जो परिवर्तन होगा वह दलित, सर्वहारा वर्ग और स्त्रियों के भीतर से और उनकी जीवन स्थितियों के अनुरूप ही होगा।
गोष्ठी का संचालन करते हुए अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के प्रोफेसर गोपाल प्रधान ने कहा कि नाटक एक हद तक स्थापित सत्ता के लिए चुनौतीपूर्ण रही है। लोक मंे उत्पत्ति के बावजूद लोक नाटकों को आम जन से बहिष्कृत करने की कोशिश की गई जिसका प्रतिरोध लोक नाट्य आज भी कर रहा है। लोक नाट्य की परम्परा प्रतिरोध की परम्परा रही है। लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
28 मई की रात
लोकरंग समारोह की दूसरी रात सबसे पहले स्थानीय गायक विशाल कुमार गौड़ ने दो जनगीत प्रस्तुत किए। उन्होंने अपने गायकी से सबको प्रभावित किया। इसके बाद मीर बिहार गांव से आए सूर्यभान कुशवाहा और उनके साथियों ने भोजपुरी क्षेत्र का लोकप्रिय चइता गीत सुनाया। भोजपुरी इलाके में साल के बारह महीनों में अगल-अलग गीत गाने की परम्परा रही है जिसमें चैत महीने में चइता गाया जाता है। गाजीपुर से आए सत्येन्द्र कुमार और उनके साथियों ने बिरहा गाया। उन्होंने अपने गीत में शिक्षा के महत्व के साथ-साथ आज की युवा पीढ़ी द्वारा बुजुर्गों की उपेक्षा की व्यथा को व्यक्त किया। बलिया से आए संकल्प संस्था के शैलेन्द्र मिश्र ने दो गीतों के माध्यम से महंगाई, सत्ताधीशों की मनमानी पर व्यंग्य किया तो भ्रूण हत्या पर एक मार्मिक गीत सुनाकर सबको द्रवित कर दिया। उन्होंने अदम गोंडवी का गीत ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,’ भी गाया।
दूसरी रात की सबसे महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां थी-पंवारा गायन और मुहर्रम में गाया जाने वाला जारी गीत। कुशीनगर जिले के ही सिसवा नहर गांव से आए पंवारा गायकों शमसुद्दीन, शबीर, हरीफ, मुमताज और उनके साथियों ने पंवारा गीत पर नृत्य प्रस्तुत किया। पंवारा गायक अल्पंसख्ययक समुदाय से आते हैं और वे बच्चों के जन्म पर बधाई गीत गाते हुए गोल-गोल घूमते हुए नृत्य करते हैं। उनके हाथ में बहुत छोटा एकतारा जैसा वाद्य यंत्र होता है जिसे तुतही कहा जाता है। पंवारा गायकी को आज भी इस इलाके के कई गांवों में अल्पंसख्यक समुदाय के लोगों ने संजो कर रखा है। पंवारा गायकी इन कलाकारों के लिए आजीविका भी है। जोगिया गांव के विशाल मुक्ताकाशी मंच पर पंवारा गायकों ने अपने गीत में एक निसंतान महिला के दुख को व्यक्त किया। दीना पट्टी गांव से आए आबिद अली, कलीमुल्लाह, जहीर, साजिद और उनके साथियों ने मुहर्रम के दौरान गाया जाने वाला जारी गीत प्रस्तुत किया। इसे स्थानीय लोग झारी भी कहते हैं। झारी गीत की मंच पर यह पहली प्रस्तुति थी। दोनों गीतों के गायन करने वाले लोक कलाकारों को दर्शकों से खूब सराहना मिली।
आखिरी कार्यक्रम के रूप में बिहार के बेगूसराय से आयी रंगनायक संस्था ने चर्चित नाटक चरणदास चोर का मंचन किया। प्रख्यात नाटककार हबीब तनवीर लिखित यह नाटक चरणदास नाम के एक ऐसे चोर की कहानी है जिसने सच बोलने का प्रण लिया था और सच बोलते हुए वह सत्ता के सभी प्रलोभनों को ठुकरा देता है जिसके बदले उसे मौत की सजा मिलती है। यह नाटक पूंजीवादी व्यवस्था और भ्रष्ट तंत्र की पोल खोलता है। रंगनायक की टीम ने इस नाटक को विदेसिया शैली में मंचित किया। नाटक के संवाद भोजपुरी और हिन्दी में तैयार किए गए थे। सचिन कुमार द्वारा निर्देशित इस नाटक में चरणदास चोर की भूमिका में मोहित मोहन ने अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लिया। नाटक के अन्य मुख्य कलाकार देवेन्द्र कुमार, कुणाल भारती, अवनीश कुमार, राजू रंजन, सूर्य प्रकाश, अंकिता सिन्हा थे। नाटक की परिकल्पन व डिजाइन वरिष्ठ रंगकर्मी दीपक सिन्हा ने किया था।
लोकरंग के आयोजन लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने अंत में कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सभी दर्शकों, बाहर से आए बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों व कलाकारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
इस प्रकार चैरीचैरा विद्रोह के विद्रोही किसानों को समर्पित सातवंे लोकरंग समारोह में विभिन्न स्थानों से आए साहित्यकारों, लेखकों और सैकड़ों लोक कलाकारों ने भाग लिया। इनमें जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण, अम्बेडकर विश्वविद्यालय नई दिल्ली मंे शिक्षक गोपाल प्रधान, बीएचयू में प्रोफेसर सदानंद शाही, ताहिरा हसन, वरिष्ठ कहानीकार मदनमोहन, कथादेश के सम्पादक हरिनारायण, रंगकर्मी डा. बृजबिहारी लाल वर्मा बिरजू, बाल्मीकि महतो, ‘लेखन’ पत्रिका के संपादक मोतीलाल मौर्य , दीपक सिन्हा, अमर उजाला के संपादक प्रभात कुमार, कामिल खान, अशोक चैधरी, जसम के सचिव मनोज कुमार सिंह के अलावा बी.आर.डी. मेडिकल कालेज के प्राचार्य प्रो. के.पी. कुशवाहा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। गोष्ठी का संचालन गोपाल प्रधान ने और दोनों रात सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन श्री भगवान महावीर पीजी कालेज के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा. मुन्ना तिवारी ने किया ।
मनोज कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
559 एफ, विजय विहार, राप्तीनगर फेज-1, गोरखपुुर 273003