लोक गायक और कलाकार, पुरबी के बादशाह स्वर्गीय महेन्दर मिसिर की स्मृति को समर्पित, कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के गाँव जोगिया जनूबी पट्टी (कुशीनगर ) में गत १५-१६ मई को सम्पन्न लोक-कलाओं का अनूठा रंगारंग समागम छठां लोकरंग-2013 देखते हुए रेणु की कहानियों की वह आत्मीय और रागपूर्ण दुनिया याद आ रही थी, जो जीवन को सामूहिकता और अन्तरंगता से जीने से बनी है . लोक-जीवन का वह भरोसा जो खेतों में साथ-साथ काम करने तथा असुविधाओं के बीच एक-दूसरे के दुख साझा करने और सुख बांटने से बनता है, इन लोक-नृत्यों के लोक -कलाकारों की दैहिक भाषा में भी जीवन के प्रति सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण का एक अचेतन सन्देश संप्रेषित करा जाता है . एक संवादी मजाकिया अंदाज और हंसमुखता इन नृत्यों को वह रसमयता प्रदान करता है, जो अलगाव, उदासी और अहंकारी उपेक्षा की नगरीय सांस्कृतिक दृष्टि और उसकी पेशेवर बाजारू संस्कृति से बिलकुल अलग है. लोकरंग में शामिल लोक-नृत्यों को देखते हुए लगा कि प्राकृतिक पर्यावरण की तरह ही विनाश के खतरे के कगार पर पहुँचने के बावजूद लोक-नृत्यों के पास, नगरों की व्यावसायिक सभ्यता को देने के लिए बहुत कुछ अब भी शेष है . उसके पास वह मन, वह चित्त और आत्मा बची हुई है, जो उसके अवसादी चित्त में उल्लास के रंग भर सकता है. लोक के पास जो निरंतर श्रमशील संवादी चित्त है, साहचर्य को शिष्टाचार की तरह जीने वाला जीवनानुभव है तथा एक-दूसरे को जीने का सांस्कृतिक आग्रह है, वह लोक-कलाओं को शास्त्रीयता की दुरुहताओं से मुक्त लोक-धर्म ही बना देता है .
कुशीनगर के जोगिया जनूबी पट्टी गाँव में बाजारवाद, शहरीकरण और भूमंडलीकरण के वर्तमान उच्छेदक दौर में लगभग विलुप्त होने के कगार पर पहंुच चुकी लोक कलाओं और उसके कलाकारों को जीवित मंच प्रदान करने के लिए आयोजित ‘लोकरंग-2013’ का दो दिवसीय उत्सव-मेला इस अहसास को तीव्रता से जगाने में सफल रहा कि हम वर्तमान में कहाँ हैं और क्या-कुछ खोते जा रहे हैं . इन नृत्यों और गीतों में उन रिश्तों के पद-चिन्ह अब भी देखे जा सकते हैं, जिनकी रिश्तेदारियां सिर्फ मनुष्य ही नहीं, बल्कि प्रकृति तक भी व्याप्त थीं . इन रिश्तों का आरोह-अवरोह ही लोक कलाओं में संवेदना के सम-विषम रंग भरता है . लोक कलाओं की देह-भाषा भी मूल मानवीय संवेदनाओं की समीपवर्ती होती है .उनमें कई पीढि़यों द्वारा परिष्कृत संवेगात्मक प्रतिभा और चरित्र-सर्जना के दर्शन होते हैं . गाँव में सुभाष जी की पारिवारिक भूमि पर सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाया गया खुला विस्तृत प्रेक्षागृह और उसमें दूर-दराज से आए ग्राम-वासियों की वैसी ही उन्मुक्त-अकुंठ भागीदारी इस कार्यक्रम को भव्यता और विशिष्टता प्रदान कर रही थी . यह लोक कलाओं का एक भव्य और यादगार मेला था . जैसे बाजारवाद और भूमंडलीकरण के इस युग में लोककलाओं को स्वस्थ और संरक्षित रखने के लिए एक अत्याधुनिक एवं उच्च सुविधाओं वाला चिकित्सा-केंद्र ही खोल रखा है . र्कायक्रम से पूर्व ही गाँव में आकर संभावना कला-मंच, गाजीपुर के चित्रकार राजकुमार सिंह, राजीव कुमार गुप्ता और सपना सिंह ने एक दिन पूर्व भारी संख्या में अपने बनाए भित्ति-चित्रों और चित्रमय कविता-पोस्टरों से कार्यक्रम स्थल को प्रदर्शनी स्थल में परिवर्तित कर दिया था . लोकरंग कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि लोक की कला एवं कविता में बड़ी शक्ति है . सहज, मार्मिक एवं प्रभावशाली अभिव्यक्ति के कारण लोक की कविता विचारों को बदल सकती है . लोकरंग आयोजन से अभिभूत चर्चित कथाकार महेश कटारे ने आयोजन को महत्वपूर्ण बताते हुए स्वयं भी एक लोकगीत का सस्वर गायन किया . उद्घाटन के अवसर पर अपने स्वागत-भाषण में लोकरंग आयोजन-समिति के अध्यक्ष कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लोकरंग कार्यक्रम को बाजारवाद की आंधी में खो रहे मूल्यों को सहेजने का एक विनम्र प्रयास बताया . उनका कहना था कि लोकरंग सामूहिकता की देन है . ऐसे में सिर्फ लोक-संस्कृतियों का संरक्षण ही ग्रामीण समाज में खत्म हो रही समरसता को वापस ला सकता है . इस दृष्टि से लोक कलाओं को बचाने की मुहिम में लोकरंग एक महत्वपूर्ण प्रयास है इसमें ऐसे कलाकारों को भी मंच देने का प्रयास किया गया है जिन्हें अब तक कोई मंच नहीं मिल सका है . सुभाष जी के इस कथन से सहमत होते हुए उन्हें यह सुझाव देना उचित लगता है कि उनकी समिति ने पिछले छः वर्षाें में लोक-कलाकारों और प्रशंसकों का जो सक्रिय समाज निर्मित किया है, उसे अपनी संस्था के माध्यम से जोगिया जनूबी पट्टी से बाहर भी ले जाने की जरुरत है . उनके-चित्त के हास्य-लास्य को उदास शहरों को भी दिखने की जरुरत है . इन नृत्यों में गांवों की श्रमजीवी सभ्यता का वह सांस्कृतिक अचेतन भी समाया हुआ है जो शब्दों में मुखरित चाहे न हो लेकिन कलात्मक प्रभावों से भी संप्रेषित हो जाती है . इन नृत्यों में बहती हवा में फसल का हिलना, पेड़ों का झूमना महसूस किया जा सकता है तो फिरकी की तरह घूमते नृत्य-परिधानों में बादलों का घुमड़ना भी प्रायः सभी लोक-नृत्यों में स्वांग की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है . स्वांग अभिजात्य वर्ग के अनुकरण के कारण न सिर्फ समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक महत्त्व के प्रतिपाठ प्रस्तुत करते हैं, बल्कि समुदाय-विशेष के नजरिए को भी सामने लाते है . उदाहरण के लिए धोबिया-नृत्य में राजसी परिधानों और कृत्रिम घोड़ों की सहायता से किया जाने वाला स्वांगपूर्ण नृत्य, उच्च वर्ग की भंगिमाओं का अच्छा उपहास करती है . १५ मई को शाम ९ बजे से आरम्भ हुआ कार्यक्रम रात के तीसरे पहर तक चला . लोक-नृत्यों के विविध रंग दूर-दूर से आए कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए . कार्यक्रम का आरम्भ मतिरानी, फूलमती और लीलामती आदि महिलाओं द्वारा प्रस्तुत कुटनी-पिसनी के गीत यानि जंतसार से हुआ . दर्जन चैहान और उनके साथियों का आवेश एवं नाटकीयता के साथ किया गया आल्हा गायन, पटना से आई प्रेरणा ईकाई द्वारा प्रस्तुत जनगीत, हुड़का और धोबिया नृत्य तो सराहनीय और अविस्मरणीय रहे . श्रमजीवी जातियों के पूर्वजों द्वारा विकसित ये नृत्य-शैलियाँ अपनी ऊर्जात्मक प्रस्तुति के लिए भी ध्यान आकर्षित करती हैं . उन्हें देखते हुए मैंने महसूस किया कि वे जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाले नृत्य और गायन शैलियाँ हैं . वैसे तो लोक-कलाएँ प्रायः जातीय संस्कृति का ही हिस्सा हैं, प्राचीन काल से ही ये अलग कबीलों और अलग जातियों की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान से भी जुडी हैं . इनका अलग स्वरूप में होना और अलग प्रकार के वाद्य-यन्त्र का उपयोग करना बताता है कि इनका विकास सामुदायिक अस्मिता के लिए ही किया गया था . इस दृष्टि से यह जाति-प्रथा की पूरक संस्कृति का हिस्सा हैं . आज सामूहिक अस्मिता का दबाव और पिछडी जातियों से संबंधित होने की मानसिकता कुंठा के सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव के कारण उनकी ही जातियों की नयी पीढ़ी को इन लोक-कलाओं से दूर कर रही है .नयी पीढ़ी पिछड़ेपन को विज्ञापित करने वाली सभी सांस्कृतिक पहचानों से मुक्त हो जाना चाहती है . वह अपनी ही परम्पराओं को छोड़कर भाग रही है . ऐसे में इन लोक-कला शैलियों को बचाने के लिए दूसरी जाति के कलाकारों को भी इन्हें सीखकर सामाजिक आदर्श प्रस्तुत करने की जरुरत है . अब समय आ गया है कि इन्हें जातीय पहचान और दायित्वबोध से मुक्त होकर अपनी लोक-संस्कृति की सामूहिक विरासत माना जाए . इस पर शोध हो, इनको लुप्त होने से बचाने के लिए इसके शास्त्र को भी विकसित कर लेने की जरुरत है . इसका शुद्ध रूप शास्त्र निर्मित कर ही बचाया जा सकता है . लोकरंग में प्रस्तुत कई नृत्य आधुनिक या फिल्मी नृत्यों से इसलिए प्रभावित लग रहे थे कि प्रायः सभी युवा कलाकार अपनी वास्तविक जिन्दगी में फिल्मी नृत्य करते रहे हैं . इस प्रभाव से बाहर निकलकर विशुद्ध परंपरागत प्रस्तुति के लिए शोध, सर्वेक्षण और शास्त्र की जरुरत होगी . शास्त्र बन जाने पर इन लोक-नृत्यों को पाठ्îक्रम में शामिल करने के लिए दबाव बनाना भी आसान होगा और संभवतः यही सुभाष चन्द्र कुशवाहा की लोकरंग समिति का भावी लक्ष्य भी है . कार्यक्रम के दूसरे दिन लोक-कलाओं के स्वरूप और संकट पर साहित्यकारों और कलाकारों की मिली-जुली अनौपचारिक गोष्ठी मदन मोहन , चरण सिंह पथिक और अनिल पतंग को मंचस्थ कर आरम्भ हुई. गोष्ठी का आधार-वक्तव्य देते हुए डॉ. तैय्यब हुसैन ने लोक-कलाओं पर पड़ने वाले विभिन्न आधुनिक कुप्रभावों की चर्चा करते हुए लोक कलाओं के जातीय स्वरूप और नई पीढ़ी के उससे कटते जाने के कारणों पर विस्तृत प्रकाश डाला . राजस्थान से आये कहानीकार चरण सिंह पथिक ने राजस्थान के समृद्ध लोक कला विरासत के अनुभव के आधार पर बीती रात के लोक-नृत्यों की समीक्षा की .उन्होंने भोजपुरी अंचल के लोक-नृत्यों को और लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता पर भी बल दिया . अभी-अभी केदार सम्मान से सम्मानित कवि दिनेश कुशवाह ने लोक-कला की तुलना शास्त्रीय कला से करते हुए लोक कलाओं को अधिक समृद्ध और मानवीय बताया . उनका कहना था कि लोक कलाएँ अपनी स्वच्छंद अभिव्यक्ति के कारण जीवन के अधिक नजदीक होती हैं . जबकि शास्त्रीय कलाएँ जीवन से दूर खाए-पीए-अघाए लोगों की कला है .दिनेश का कहना था कि यह समय भूमंडलीकरण का है . हमें प्रतिरोध के लिए अपनी जड़ों से भी जुड़़ना होगा . लोकरंग जैसे आयोजन ही हमें अपनी जड़ों की ओर खींचने में कारगर होंगे . उन्होंने गाँव छोड़कर शहरों की ओर जन-पलायन को भी लोक-चित्त के लुप्त होने का कारण बताया . प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने लोक-प्रथाओं और लोक-कला के बीच के रिश्तों पर प्रकाश डालते हुए कहा की गांवों की स्त्रियाँ जब भेंटती थीं तो गाने में रोना और रोने में गाना के साथ दुःख-दर्द -संवाद की कई अन्य भूमिकाओं में भी होती थीं . बेगुसराय से आए रंग-अभियान पत्रिका के संपादक अनिल पतंग ने लोक कलाओं के प्रति बढ़ती उपेक्षा पर चिंता व्यक्त करते हुए उसके संरक्षण के लिए केवल सरकारी प्रयासों को अपर्याप्त बताया . कथाकार मदन मोहन ने कलाकारों की सक्रिय टोलियाँ और समूह बनाकर लोक कलाओं को बचाने की जरुरत पर बल दिया . डॉ. मुन्ना तिवारी ने शास्त्रीय नृत्य और लोक-नृत्य की भंगिमा और अभिव्यक्ति-शैली का अंतर स्पष्ट करने वाला अत्यंत रोचक और नाटकीय वक्तव्य दिया . कथादेश के संपादक हरिनारायण ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मूल्यों की , लोक मूल्यों की बात केवल साहित्य कर सकता है लेकिन आज सामाजिक मूल्यों के लोप की स्थिति है . साहित्य लोक को छोड़कर सिमटता जा रहा है . इस अलगाव के लिए पढ़ा-लिखा वर्ग भी जिम्मेदार है . लोक गीत और कलाएँ इसी खालीपन या रिक्तता को भरती हैं . दो दिवसीय इस र्कायक्रम में कई इकाईयों ने अपनी-अपनी प्रभावशाली नाट्य-प्रस्तुतियां दीं . कई समूहों का गायन भी अत्यंत प्रभावशाली रहा . विविध लोकगीतों, नृत्यों के अलावा लोकरंग 2013 में हसन इमाम के निर्देशन में प्रेरणा, जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, पटना द्वारा नाटक- पोलटिस उर्फ मुक्तनाद प्रस्तुत किया गया . दूसरी रात, हिन्दू-मुस्लिम एकत्व की पुरानी धरोहर संस्कृति ‘पंवरिया नृत्य’ और उसकी सोहर एवं पंवारा गायकी ने विभाजनकारी ताकतों को नकारने को विवश किया . गुड़ी, रायपुर, कला और नाटक को समर्पित सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था द्वारा नाटक-उजबक राजा तीन डकैत (हैंस क्रिश्चियन एंडरसन की कथा-द एम्परर्स न्यू क्लाथ्स पर आधारित) जैसा शानदार नाटक प्रस्तुत किया गया . इस नाटक ने वैश्विक पूंजी के सहारे औपनिवेशिक सत्ता स्थापित करने के कुचक्र को दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर मंत्रमुग्ध कर दिया . इस नाटक का निर्देशन योगेन्द्र चैबे ने किया था . अभिषेक पंडित के निर्देशन में सूत्रधार, आजमगढ़ द्वारा रविन्द्र नाथ ठाकुर रचित गूंगी नाटक को विदेशिया शैली में प्रस्तुत किया गया और खराब मौसम के बावजूद दर्शकों को दो बजे रात्रि तक बांधे रखा . लोकरंग कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली से आए प्रतिष्ठित साहित्यकारों और स्थानीय पत्रकारों के साथ रंगकर्मियों और नयी पीढ़ी के लोक कलाकारों की बड़ी संख्या में उत्साहपूर्ण भागीदारी, लोकरंग समिति के माध्यम से ही सही, लोक कला के सुरक्षित भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है . दो दिवसीय इस लोकरंग में प्रो. वीरेन्द्र नारायण यादव, प्रो. अनिल राय, जितेन्द्र भारती सहित भारी संख्या में स्थानीय साहित्यकार और शिक्षाविद् मौजूद रहे .
प्रस्तुति- रामप्रकाश कुशवाहा
विभागाध्यक्ष, हिन्दी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, युसुफपुर, मोहम्मदाबाद, गाजीपुर . एवं बी-१, श्री साईं अपार्टमेंट, टडिया (करौंदी ) सुन्दरपुर, वाराणसी -२२१००५