संपादकीय
विरह का उपाख्यान है जंतसर
जंतसर, जंतसार यानी जांत पीसते समय गाने वाला गीत, जो अब लगभग दम तोड़ने के कगार पर है । यह विरह की अग्नि से झुलसा हुआ गीत है। पूर्वांचल की भूख, गरीबी और विस्थापन का यथार्थ जंतसर में छिपा हुआ है। कम उम्र में ब्याह कर देने, गवना कराकर बीवी को ससुराल छोड़ देने और खुद परदेश चले जाने की व्यथा का पुराण है जंतसर। न जाने कितनी नव विवाहिताओं की आह ने विरह की पराकाष्ठा में जंतसर को संवारा है। यहां बिहारी जैसी गप्पबाजी नहीं है बल्कि मिलन की आस में पल-पल झुलसता पूरा का पूरा वृतांत है। यह वृतांत एक ऐसा यथार्थ है जहां आंसू बहाने तक की मनाही है। घर की चहार दिवारी में पिया बिन तड़पती स्त्री की पीड़ा, मुरझाये गालों पर सूख कर उसे असमय बुढ़ा देती है। इसलिए जंतसर सिर्फ स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है जहां बहुतायत में पति के परदेश जाने के दर्द की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है- ए रामा हरि मोर गइले बिदेसवा, त दुइ नवरंगिया लगवले हो राम। ए राम हरि जी के लावल नवरंगिया, त नवरंग झुरा गइले हो राम। रोजी-रोटी के लिए पुरुष का विस्थापन महीनों का नहीं, बरसों का होता था- कहिके गइले पियवा छव रे महीनवा, आरे बीति गइले बारहो बरिस रे बिदेसिया। तब ससुराल में या मायके में पड़ी स्त्री की दशा का हाल यह होता कि-दिनवा गिनत मोरे अंगुरी रे खिअइली, आरे बटिया जोहत नयना लोर रे बिदेसिया।
जांता चलाने का समय, आराम के समय को कुतरने के बाद निकालना पड़ता था। यानी दैनिक कार्यों के अलावा। रतिया पिसावे जब गेहुंवा ए बाबा, दिनवा कतावे झीन सूत । इसलिए ज्यादातर भोर, रात्रि का तीसरा या चैथा पहर, जब प्रकृति शांत और सुकुमार लगती थी, जांता चलाने के लिए चुना जाता। चुना क्या जाता ? जब पिया बिनु नींद ही न आ रही हो तो स्त्री को तीसरे पहर में उठ बैठने के अलावा क्या चारा? प्रकृति भले ही अपनी सुकुमारता पर इठलाए मगर स्त्री के जीवन में वह सुकुमारता तब आये, जब पिया पास हो? रात की शीतलता और संसर्ग का सुख मिले, जब पिया साथ हो?
सास द्वारा थमा दिए गए डलिया भर गेंहू को लिए, भोर में ही उठ कर पीसने बैठ गई है बहू । क्या करे ? पिया परदेश चला गया है तो नींद भी तो नहीं आ रही ? अब वह जांत का जुआ पकड़ गेहूं पीस रही है और पिया वियोग को गीत में पिरो रही है। जांत को खींचते हुए दम खींच कर वह गाती रहती है और इसी बहाने पिया की याद में गेंहू पिस जाता है। बिरही रात और प्रकृति की मादकता के बीच जांत के हहर-हहर के बीच वह बोल पड़ती है-मोर पिछुवरवा रे सीरिसिया हहर-झहर करे ए राम। सीरसि पात हहरे-झहरे त नीनियों ना आवेला ए राम।
या
मोरा पिछुवरवा रे घनी बंसवरिया। ताहि चढ़ि कोइलरी बोले रे बिरहिया।
या
बाव बहेले पुरवइया, अलसी निनिया अइली हो। नीनी भइली बइरिनिया, पिया फिरि गइले हो। विरहिनी के नींद भंग करने वाले इस सिरिस के पेड़ को नापसंद करना स्वाभाविक है। इसे जड़ से कटवा देना ही उचित होगा। वह पीड़ा की शांति के लिए बढ़ई भाई से कहती है- मोर पिछुवरवा बढ़इया भइया बेगे चली आवहु ए राम। जरी से ना काटहु रे सोरिसिया त हहरे-झहर करे ए राम।
गरीबी वह डाईन है जो मानवीय संबंधों को कुतरती है। पिया परदेश न जाये तो क्या करे? गांव में कोई रोजगार नहीं है। भूख और गरीबी ने तो ब्याह के बाद ही पिया को मोरंग या मगघ भेज दिया है। पत्नी बार-बार मना कर रही है। वह पिया से बिछुड़ना नहीं चाहती । पति को उलाहना देते हुए उसे लोभी कहती है- बेरी की बेरी तोहि बरजों ए लोभिया, जनी जो तुहु मोरंगवा । मोरंग पातर पनिया, लगोहें रे करेजवा । पिया मानता नहीं । भूख मानने नहीं देती। वह चला जाता है। अनपढ़ पिया के लिए चिट्ठियां लिखना भी कठोर है, ठीक ठस जांत की तरह । उस जांत की तरह जिसने अपनी छाती पर किल्ला ठोक रखा है। बीच में सुराख करा रखा है। पिया ने भी अपनी छाती पर पत्थर रख लिया है । उसने भी छाती को कड़ा कर लिया है। उसे क्या पता कि ब्याहता के आंसू उबल रहे हैं। मोबाइल का जमाना होता तो बात कुछ संभल भी जाती । दो बोल सुनने को मिल जाते । पत्नी के लिए तो चिट्ठी लिखवाना और भी मुश्किल काम था तब । चिट्ठी लिखवाने के लिए दूसरों से अनुरोध करना पड़ता-मोरा पिछुवरवा रे भीमला मलहवा निरमोहिया। एक ही चिठिया लिखि देेहु रे निरमोहिया। मल्लाह कहता कि – कथी के करबो रे कारावा कागदवा निरमोहिया। कथी के करबो मसीहनवा, निरमोहिया। उसके पास न तो कागज है, न स्याही। चिट्ठी किस पर लिखे ? स्त्री कहती है-आंचर फारि चीरि कारावा रे कगदवा निरमोहिया। नयन कजरवा मसीहनिया, करबो निरमोहिया। वह आंचल फाड़ कर कागज के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है। आंख का काजल, आंसुओं से गिला हो चुका हैं लिहाजा वह स्याही का काम करेगा और चिट्ठी लिखने की व्यवस्था हो जायेगी। इन गीतों में छिपी स्त्री वेदना की पराकाष्ठा का जब भी स्मरण होता है तो सामने जांत यानी गोल पत्थर की तस्वीर उभर आती है । जांत के दो पाट, गेंहू को पीस देते हैं । जैसे ब्याहता के दिल को पीस रहे हांे। वह अपनी पीड़ा को चिट्ठी में यूं लिखवाती है-ए लोभी कहिया घरवा तें अइबे, दूरि रे नोकरिया निरमोहिया। जांत चलाती स्त्री का दर्द उसके मन के भावों को पीसता, गाने के रूप में निकलता रहता है। वहां दो पाटन के बीच साबुत बचना संभव नहीं है। कबीर भी इसे भिन्न रूप में ही सही, मानते हैं।
विरहणी का दिल, विदेश गये पिया की निष्ठुरता से आहत है, जो ब्याहता के प्रेम, आस, उमंग और जवानी को गेंहू को आटे की मानिंद पीस कर दूसरों की थाली में परोसने के लिए छोड़ देता है। जी हां, ऐसी स्त्री के पास क्या विकल्प बचा है ? उसने तो पहले ही पिया से कहा था-जाहु तुहु पियवा बिदेसवा जइब रे ना। आपन चढ़ली जवनिया कइसे राखबि रे ना। भूख भला पतिव्रता के मान को उखाड़ न फेंके तो क्या करे? जाहु हम जनितों जे पिया बाड़े अइसन, राम की कइ रे घलितों ना । उजे पातर सिपहिया राम की कइ रे घलितो ना। ऐसा नहीं है कि पर पुरुष के साथ चले जाने की पहल स्त्री द्वारा हुई हो। पुरुष तो कहीं उससे ज्यादा बेवफा है। परदेश से लौटे पिया से पत्नी पूछती है कि- कइसे-कइसे रहलों ए हरिजी, उतरी बनिजिया नु रे जी। पति जवाब देता है- दिन भरि रहलों ए धनिया, राजावा के नोकरिया नु रे जी। सांझि बेरि रहलों ए धनिया, मलिनिया सेजरिया नु रे जी। पति के न रहने पर पत्नी का गर्भवती हो जाना, स्त्री जीवन में लोकलाज की दूसरी समस्या खड़ी करता है। ऐसे में स्त्री के पास यही बहाना बचता है-मोरा पिछुवरवा ए ननदी, चम्पवा के फूलवा नु रे जी। चम्पवा के फूलवा ए ननदी, रहेला गरभव नु रे जी। यहां चम्पा के फूल पर मंडराता भंवरा यानी आशिक से गर्भ रह जाने का प्रतीकात्मक खुलासा करना पड़ता है और अब इस गर्भ को केकरा सिरे ढारबि नु रे जी का बहाना ढूंढना पड़ता है।
पूरबी गीतों में भी जंतसर की ही तरह विस्थापन का दर्द उभरता है । महेंदर मिसिर, पूरबी तान के अनूठे बादशाह हैं। उनका एक गीत है-अंगूरी में डसले बा नागिनिया रे, हे ननदी पिया के जगा द। पोरे पोरे उठेला लहरिया हो, हे ननदी, दियरा जला द। यह गीत मुझे शुरू से भिन्न रूप में भाता है। मैं बार-बार सोचता हूं कि इस गीत में नागिन का क्या काम? क्या उलाहना उससे ? जिनगी का जहर कम है क्या ? ब्याहता के जीवन के पोर-पोर में जहर है। कई प्रकार के जहर ससुराल में हैं। सास-ननद भी प्रतिपक्ष की भूमिका में आ जाती हैं मगर पिया? पिया या तो अल्प वयस्क है। नादान है। सोया है या रोजी रोटी के लिए विस्थापित है। इस गीत में पूरब और पश्चिम का जिक्र भी है। उत्तर-दक्षिण का नहीं। पूर्वांचल से विस्थापन तब या तो मोरंग देश, रंगून होता था या गोरखुपर, बरेली आदि जगहों पर। कलकत्ता परदेश और पूरब देश था। बरेली, गोरखपुर आदि पश्चिम। यहां जहर और लहर का जिक्र है। जहर से पोर-पोर में लहर समा गई है। पिया अगर सजग रहे, सोये न तो पत्नी का दुख दूर रहे । पिया जागृत अवस्था में तभी रहेगा, जब समझ हो। जब प्रकाश हो। इसलिये अंधेरे को दूर करने के लिए दियरा को जलाना जरूरी है। ननद से आसानी से कहा जा सकता है। ननद अगर, पिया को यानी अपने भाई कोे जगा दे, दियरा जला दे तो क्या कहना? लहर भी कम हो जाये और विस्थापन का दर्द भी। प्रतिपक्ष, पक्ष में आ जाये। यहां स्त्री प्रगतिशील है । जीवन का जहर, ओझइति से नहीं जाने वाला । इसलिए वह कहती है कि ओझवा के झाड़ फूंक से जहर कहाँ उतरने वाला? पिया ही बांटेंगे जहर। यहां जहर खत्म करने की बात भी नहीं। बस बांट लेने की बात है, यही बहुत। स्त्री इतनी पराधीन भी नहीं। कुछ तो जहर वह भी पिएगी ही। यहां तब की विवाहिता का जीवन-तड़पे ला देहिया जइसन जल बिनु मछरिया की तरह है। पिया नहीं हैं, यानी मछरी के लिए पानी ही नहीं है । एक बार फिर यहां विस्थापन का दर्द उभारा गया है। पूर्वांचल का वह समय, जब महेंदर मिसिर या भिखारी ठाकुर का था, रोजी-रोटी के लिए परदेस जाए बिना पेट पलता नहीं था। स्त्री पिया बिन जीवन गुजारती थी। उसकी अंगुरी में नागिनें डसती थीं। अंगुरी, यानी उसके शरीर का उत्तेजक अंग। हे ननद, पिया जीवन में सो गया है। कोई और अंगुरी पकड़ ले, अपना जहर छोड़ दे, इसके पहले तुम अपने भाई को सचेत करो। जगाओ। बुलाओ। दियरा जलाओ। मैं जल बिनु मछरी की तरह तड़प रही हूं।
कुछ विद्वान अकारण जंतसर को तितिरा, झगरा और भजन में विभाजित करते हैं। मैं इस विभाजन को स्वीकार नहीं करता। मूलतः जंतसर में पति के परदेश जाने, निःसंतान होने और ससुराल की ज्यादतियों की पीड़ा व्यक्त हुई है। जंतसर पीड़ा का गीत है जिसके केन्द्र में विरह है। वहां किए गए श्रम का कोई आनंद नहीं है। मजबूरी है। पीसे गये आटे की रोटी खाने वाला पिया पास नहीं है। वह किसी और के पीसे आटे की रोटी खा रहा है। सास ने गर्भवती या बिरही बहू की हालत पर तरस खाये बिना ही गेंहू का टोकरा पकड़ा दिया है।
कहीं-कहीं जंतसर में इतिहासबोध भी है। मुगलों द्वारा किए गए ब्याह का गान भी देखने को मिलता है-मिरजा तू त हउआ मोगल पठनवा हो ना। जौ तू मिरजा हमहीं लोभाने हो ना, मिरजा, बाबा जोगे हथिया बेसाहा हो ना। जंतसर एक नियंत्रित और लयबद्व लोकगीत है जो बिलम्बित स्वर में गाया जाता है। इसकी दोनों पंक्तियां मिलकर एक चरण बनाती हैं। इसकी लय बिलंबित और दर्दभरी होती है- फरि गदली निबिया लहसि गइली डरिया /तबहूं न आए परदेसिया कइसेक दिनवां बीतइ हो राम। जंतसर में हो राम, हो ना, रे ना, नु रे जी आदि चरणांत आते हैं। यहां कथानक सहज और हृदयग्राही होता है। जंतसर, नीरवाही गीत से मिलते-जुलते हैं। कहीं-कहीं करुण रस प्रधान जंतसर में विभत्स और हास्य रस भी मिल जाता है-सूप अइसन दाढ़ी मोगलवा कै बरधा अइसन आंखि/ओहि मुंहलेसव मोगल चुमवा रजलो के छुटी ओकिलाइ। जंतसर में लोक गाथाओं को गाने की भी परंपरा रही है मगर सभी लोक गाथाओं में स्त्री पीड़ा और विरह की प्रमुखता पाई जाती है।
जंतसर में तो स्त्री पीड़ा का जो उपाख्यान व्यक्त हुआ है, उसकी अभी अकादमिक व्याख्या होनी बाकी है। उसे गंवारों का सृजन समझना भूल होगी। भोजपुरी लोकगीतों की बहुत बड़ी थाती जंतसर में समाहित है । ठीक है कि अब जांत से आटा पीसने का काम बंद हो गया है। विस्थापन का स्वरूप भी बदला है। पर गरीब स्त्रियों की पीड़ा का अंत नहीं हुआ है। ऐसे में अभी इन गीतों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
इन्हीं अपेक्षाओं के साथ लोकरंग 2018 में हम अपने अभियान को जारी रखे हुए हैं। आप साथियों से उम्मीद और अनुरोध भी है कि लोकरंग को सफल बनाने और विस्तार देने में सहयोग करेंगे।
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा