सम्पादकीय
लोक संस्कृति और पसमांदा मुसलमान
परिवेश और श्रमशीलता की डोर धर्म के विभाजककारी रेशों से कहीं ज्यादा मजबूत होती है। मनुष्य, समान परिवेश और श्रमशील समाज में रहते हुए समान संस्कृतियों का निर्माण करता है और भिन्नधर्मी होते हुए भी रहन-सहन, खान-पान, सोच-समझ, रीति और प्रीति में समान आचरण करता है। आठवीं सदी में भारतीय भू-भाग में मुस्लिम धर्म के आगमन के बावजूद, लोकसमाज के परंपरागत रीति और प्रीति के तत्व बदले नहीं । देश के उत्तरी एवं पूर्वांचल के मैदानी इलाकों में मुसलमान बाहर से नहीं आये। यहीं के दुरूह कर्मकांडों, पाखंड़ों और हिन्दू धर्म की अमानवीयता से दुखी समाज ने अपनी मुक्ति के लिए मुस्लिम धर्म को अंगीकार कर लिया । मगर समाज के धर्मान्तरण के बावजूद, परिवेश और श्रमशीलता ने उन्हें आपस में बांधे रखा। गांवों के लोक ने अपने जीवन में हिन्दू-मुसलमानों को समान संस्कृति में जीने का गुर सिखाया। पर्व और त्योहारों का सम्मिश्रण शुरू हुआ तो पैगम्बरों को इसी धरती पर उतार लिया गया । सूफी संस्कृति ने योग, साधना, पूजा पद्धतियों का समानीकरण शुरू किया तो लोक गीतों में हासन योगी बना दिए गए। मुहर्रम के अवसर पर गाये जाने वाले जारी (झारी) लोकगीतों में पैगम्बर हासन के बारे में नयी कहानी रची गई-‘हासन घरवा से निकले ले बन के जोगिया/उनकी हथवा में तुमड़ी, बगल में झोरिया । (हासन, घर से योगी बन कर निकल रहे हैं । उनके हाथ में तुमड़ी और बगल में झोला लटक रहा है) । इतना ही नहीं, लोक संस्कृतियों ने हासन-हुसैन को गंगा-यमुना के दोआब में खींच लिया है। ये पार गंगा, ओ पार जमुना, बीचवा बलुआ रेत/ओही बालू रेतवा रे मालिन, बगिया लगावेले। बगिया लगावे रे मालिन, फूलवा लोढ़ावेले । फूलवा लोढ़ावे रे मालिन, हारवा बनावेले, हारवा बनावे रे मालिन, हासन के पहिनावेले। (इस पार गंगा है और उस पार यमुना। दोनों के बीच जो बालू का मैदान है, उसमें मालिन ने बाग लगाया है और वह बाग से फूलों को तोड़कर हार बनाती है तथा हासन को पहनाती है) ।
कहा जा सकता है कि अतीत काल से ही द्विधर्मी लोक जीवन एक-दूसरे से ऊर्जा बटोरता, संग-संग जीने की कला सीख लिया था। रहीम से लेकर कबीर तक, दोनों धर्मों के पाखण्डों पर प्रहार करने लगे थे। जायसी ने पदमावत की रचना की तो अमीर खुसरो ने ‘छाप तिलक सब छिनी रे, मोेसे नैना मिल़ाइके,’ गाते हुए सूफियों की प्रेम पराकाष्ठा ने इस धरती को सींचा। कहीं कोई दुराव नहीं और न रीति रीवाजों का धार्मिकीकरण से कोई लेना-देना था।
हिन्दू समाज में विवाहितायें मांग में सिंदूर लगाती रही हैं। यह उन्हीं का प्रभाव था कि मुस्लिम समाज में भी यह प्रथा प्रचलित हो गई । पूर्वांचल और अवध के गांवों में इस रिवाज को देखा जाता रहा है। निकाह के बाद सिन्दूर लगाने की प्रथा प्रचलन में रही है। मुहर्रम के पुराने जारी गीतों में सेंदूर लगाने का वर्णन अनेकों जगहों पर आया है । ‘बेटी मैके से आया है खबरिया सईयद तोरा लड़ गयो /बेटी सिरवा के सेनुरा उतार, सईयद तोरे लड़ गयो।’
या
‘करम में करबला हो झलके, दांते झलके मिसिया/दुलहिन के सेनुरवा हो झलके, अचरन में मोतिया।’
या
मुड़वै न बान्है पायौं, तेल न लगावै पायौं, आई गई काफिर से खबरिया रे हाय ।
सेन्हुरौ न लगावै पायौं, मंगियौ न भरै पायौं, आई गई मरन कै हवलिया रे हाय।
या
जो मोरी बहिनी लड़इया जीति अइहौं, जुझइया जीति अइहौं,
मोेतियन मंगिया भरउबै, मोतियन मांगिया गुंथइबै।
या
हसन कै बीवी लट छिटकाय रोवैं, मांग सेन्हुर धोइ रोवैं, हाथे मेंहदी पोंछि रोवैं, अइसन हसन नाहीं पउबै रे हाय।
हिन्दू समाज की बदरंगत यहां कि जातिप्रथा रही है । बच्चा जनाने का काम चमाइनों के जिम्मे रहा हैं । बच्चे के जन्म होने पर चमाइन और नाऊन, नेग मांगती हैं। मुहर्रम के जारी गीतों में भी धंगरिन (चमाइन) का जिक्र आया है । ‘हासन हुसेन जब लिहले जनमवा से बजे लगले ना/ओहिजा नवरंग के बजवा बाजे लगले ना/धंगरिन मांगेली अनधन सोनवा, से नउनिया मांगे ना/उनके मक्का हो मदिनवा, नउनिया मांगे ना।’ लोकगीतों का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि दोनों समुदाय ने समान तरीके से लोकगीतों की रचना की है । जहां हिन्दू संस्कारों में शिव, राम या कृष्ण का नाम आता है वहीं मुस्लिम संस्कारों में उसी प्रकार नबी रसूल का उल्लेख किया जाता है। शादी में सेहरा गाने का रिवाज हिन्दू और मुसलमान, दोनों में है। उर्दू और हिन्दी भाषा जहां एक-दूसरे में घुली-मिली है वहीं दोनों समाज के लोकगीतों में प्रचलित मुहावरों ने भी एक-दूजे के शब्दों को स्वीकारा है। ‘हसन की दादी पातरी, पहिरे कुसुम रंग चूनरी, ओढ़ि पहिरि दादी चली मदीने, वहीं मदीने बीच आगि लगी। कोयला अगिनि सबही बुझावैं, कोखिया अगिनि बुझती नहीं ।’ इस गीत में प्रयुक्त कुसुम, कोयला अगिनि और कोखिया अगिनि जैसे शब्द या मुहावरे, हिन्दी लोकगीतों के प्रभाव से ही आये हैं (अवध लोक गीत विरासत- डाॅ. विद्या बिन्दू सिंह, प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ 126)।
पूर्वांचल की लोक संस्कृतियों में पसमांदा मुसलमानों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। जब इस क्षेत्र में नौटंकी का दौर था, ज्यादातर नौटंकी कंपनी चलाने वाले कलाकार मुसलमान ही थे। ‘लोकरंग-1’ पुस्तक में हमने रसूल मियां की खोज की थी और उनकी रचनाओं के समानधर्मी स्वरूप को सामने रखा था।
शादी-ब्याह के अवसर पर बजाने वाले पूर्वांचल के ज्यादातर बैंड बाजे, सारंगी या शहाई बजाने वाले मुसलमान ही हुआ करते हैंे। इनके अलावा इस क्षेत्र में कुछ ऐसी लोक संस्कृतियां रही हैं, जिन पर मुसलमानों का एकाधिकार रहा है। यहां कुछ उदाहरण दिया जा सकता है-
बाकुम गायकी
बाकुम द्वारा दरवाजे-दरवाजे कविता सुनाना और लोगों को, खासकर औरतों को हंसा कर भीख मांगने की प्रथा सदियों से चलती आ रही है । बाकुम प्रथा के वाहक पसमांदा मुसलमान होते हैं । चेहरे पर काला कपड़ा, जिसमें अनेक कौड़ियां, बटन या दूसरी चमकीली चीजें टांकी गई होती हैं, के कारण बाकुम का चेहरा डरावना लगता है । देखने के लिये आंखों के स्थान पर कपड़ा कटा होता है । कंधे में झोरी, हाथ में एक डंडा और उसके एक सिरे पर छोटा डिब्बा, जिसमें बजाने के लिये कुछ कंकड़-पत्थर डाले गये होते हैं। बाकुम इसी डिब्बे को हिला कर ‘खन-खन’ की आवाज निकालते हुये कविता सुनाता है – ‘बुढ़िया माई घर घुमनी, कोदो के मांड़ पीये भर डोकनी, अबहीं कमे बा ….’, बुढ़िया माई रोटी पकाई, लड़िकन के खांड़ा-टुका, अपने अढ़ाई, अबहीं कमे बा …।’ कविता सुनाते-सुनाते बाकुम छोटे बच्चों को डराता है । एक द्वार से दूसरे द्वार जाते हुये बाकुम गाता है । ‘नवका दरबार ह, बाकुम के सवाल ह, मिल जाइ चट से, चल जाईं पट से ।’
पंवरिया नृत्य और गायकी
पंवरिया या पमरिया परंपरा सांस्कृतिक एकता की मिसाल रही है । पंवरिया गायक गरीब मुसलमान होते हैं, जो सदियों से अपने पंवारे और सोहर गायकी से जनता के द्वार पर बधाई देने आते रहे हैं । रामजन्म और कृष्णजन्म की गाथा गायकी के अलावा तमाम पौराणिक गाथाओं को भी इनकी गायकी में स्थान मिला हुआ है । पुत्र प्राप्ति के अवसर पर हिजड़ों द्वारा बधाई देने की परंपरा से अलग पंवरिया गायकों द्वारा बधाई देने की परम्परा रही है जो तुतुही और ढोलक बजाकर अपने चुहलपन द्वारा समाज का मनोरंजन करती रही है ।
घंटों चलने वाले पंवारों में किसी न किसी नायक की गाथा को कई-कई घंटे तक गाते हुए ये गायक पूरा महाकाव्य सुना डालते हैं । शायद लोकगाथाओं के विस्तार के कारण ही यह मुहावरा चल पडा होगा कि-पंवारा मत सुनाइये। प्रारंभ में पंवरिया संपन्न लोगों के यहां अपनी गायकी प्रस्तुत कर सोना, चांदी, सेरवानी या अन्य महंगे वस्त्रों को इनाम स्वरूप पाते थे । सेरवानी पोशाक पहने, कंधे पर कोई साड़ी, पैरों में घुंघरू और हाथ में तुतुही को रगड़ कर स्वर देने वाले ये कलाकार आज उपेक्षित हैं और यह परंपरा समाप्त होने के कगार पर पंहुच चुकी है । तुतुही एकतारा और सारंगी का मिलाजुला सरलीकृत वाद्य यन्त्र है जिसे लोक कलाकार आसानी से तैयार कर लेते है । कोरस गायकों की टीम बैठी रहती है जबकि मुख्य गायक खड़ा होकर, नाचते हुए गाता है । कई बार इनकी गायकी में दुखान्त गीतों और पंवारों को स्थान मिलता है ।
सोहर
घर घर फिरेले नउनिया त अवरु बरीनिया नु ए ।
ए रानी आजु मोरा राम जनमिहें भरतजी के तीलक ए
ओबरीनी झगड़ेले धगडि़िनया, दुअरिया पर नाउनि ए,
ए रानी हम लेबो राम ओढ़निया तबहिं नोह काटबि ए ।
‘लोकरंग-1’ संग्रह में मैंने एक बंध्या स्त्री ‘जासु देवी’ की पीड़ा का वर्णन करने वाला पंवारा प्रकाशित किया था। यह पंवारा मैंने एक पंवरिया से सुना था। इस पंवारे में बांझिन स्त्री, तमाम जगहों पर शरण मंगने जाती है, जिसमें उसका मायका, जंगल, जंगल का राजा बाघ और गंगा माई भी शामिल हैं । वह अंत में गाजी बाबा के पास जाती है। गाजी बाबा नमाज पढने के बाद दो लकड़ियों के टुकड़े देते हैं। बाद में उन्हीं के बताये तरीके से बांझिन स्त्री को दो बच्चे पैदा होते हैं। ऐसे पंवारों में तमाम मिथकों के समावेश के बावजूद, हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों को एक सूत्र में पिरोया गया है और यही पूर्वांचल की मिली-जुली लोक संस्कृति रही है।
जोगी गायकी
सूफी संप्रदाय से मिलता-जुलता एक संप्रदाय जोगियों का है। अधिकांश जोगी पसमांदा मुसलमान होते हैं जो नाथ संप्रदाय से जुड़े हैं। ये शिव की अराधना के बाद, राजा भर्तृहरि या गोपीचंद के सन्यासी बनने की कथा, गीत गाकर सुनाते है । जोगी गायकी, विरह का गीत है जो सारंगी बजाकर गायी जाती है । ये जोगी गेरुआ वस्त्र पहनते हैं और गांव के बाहर रहते हैं। भिझाटन ही जीविका का साधन है। अभी तक इनके बारे में समाज को यह जानने की जरूरत न थी कि वे हिन्दू हैं या मुसलमान। गांव वाले इन्हें बाबा या जोगी कहा करते । अब दोनों समुदायों के बीच जिस तरह कट्टरता बढ़ाई गई है, उसका परिणाम यह हुआ है कि अब जोगियों की नई पीढ़ी, इस पेशे से अपने को अलग रख रही है।
नौवीं सदी में नाथ पंथ के प्रणेता गोरखनाथ जिस दर्शन को स्थापित कर रहे थे वह हिन्दू धर्म से भिन्न, जोगी दर्शन था। वह सनातनी पाखंडों से अलग, समाज के अस्पृश्य लोगों के योग साधना पर आधारित था। वह हिन्दू-मुस्लिम विभाजन के खिलाफ था, वो मूर्ति पूजा के भी खिलाफ था और बहुत हद तक सूफीवाद के करीब था। विदित हो कि गोरखनाथ के समय भारत में मुस्लिम धर्म अपना स्थान बना चुका था । गोरख ने अपने तमाम पदों और दोहों में ऐसा जिक्र किया है । एक जगह वह कहते हैं-‘हिन्दू ध्यावै देहुरा मुसलमान मसीत, जोगी ध्यावै परमपद जहाँ देहुरा न मसीत ।’ अर्थात हिन्दू देवालय में ध्यान करते हैं, मुसलमान मस्जिद में किन्तु योगी उस परमपद का ध्यान करते हैं, जहाँ न मंदिर है और न मस्जिद। योगी के लिए देवालय, मठ, मस्जिद और इनके अतिरिक्त भी, सब जगह परमात्मा का सहज बोध सुलभ होता है। कबीर पंथ और नाथ पंथ में बहुत हद तक समानता है। कबीर कहते हैं-‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पड़े सो पंडित होय ।’ इसी के बरक्स गोरखनाथ कहते हैं-‘वेदे न सास्त्रे कतेब न कुरांने पुस्तके न बांच्या जाई, ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधे लाई।’ कबीर की उलटबांसियां भी नाथ पंथ से ली गयी हैं । गोरखनाथ कहते हैं -‘हिन्दू आषे राम को मुसलमान षुदाइ, जोगी आषे अलष कों तहां राम अछे न षुदाइ ।’ ( यहां ष को ख की तरह पढ़ा जाना चाहिए) । अर्थात हिन्दू राम का ध्यान करते हैं और मुसलमान खुदा का। योगी अलक्ष्य के नाम का आख्यान करते हैं, वहां न राम है न खुदा ।
नाथ पंथ का वाहक पसमांदा मुसलमानों का एक बड़ा तबका आज भी लाखों की संख्या में है । इनकी आबादी भारत, पकिस्तान और बांग्ला देश में पाई जाती है । भारत में राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल तक योगी परंपरा के दर्शन होते हैं । इनकी जाति कहीं पर जागा और कहीं पर जोगी लिखी हुई है । अंग्रजों के गजेटियरों में जोगियों की जाति और संख्या का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । उत्तर प्रदेश के सीतापुर में 40 लाख जागा मुसलमान हैं । लखीमपुर खीरी, देवी पाटन मंडल, गोरखपुर मंडल में इनके तमाम गांव अब भी हैं । वैसे धार्मिक कट्टरता के उभार के चलते तमाम परिवारों ने अपने पैतृक पेशे को तिलांजलि दे दी है और सदा के लिए सारंगियों को फेंक दिया है ।
जोगी गायकी का एक मार्मिक प्रसंग यहां दिया जा रहा है-
निकल ऽ… निकल ऽ मैना हो माई, हृदय के रहलू कठोर ।
उहे एकलौता बलकवा माई, बनी के अइले जोगी ।
अपने हो जनमलका माई, चिन्हत नईखू दुआरे ।
तोहरे जनमलका माई, बन के अइले जोगी ।
………………………..
बारह रे बरिस के राजा भर्तृहरि रहले, बाला रहले उनके ज्ञान..
करी के गवनवा भर्तृहरि जोगी बनले, तेजले बावन गढ़ के राज ……
पकड़ि गुदरिया रोवे रनिया रंग महलिया के, भर्तृहरि से करेले जवाब
करि के गवनवा क्षत्री जोगी बनलीं ऽ …तेजत बानीं़ ऽ कवने कारन राज ।
अरे जानत रहनीं हे स्वामी जोगी बनब ऽ , तब काहें कइनीं विवाह ।
अरे बोझल नईया मोर बोर देहनीं, अब कइसे होइहें बेड़ा पार ।
झर-झर रोवे रनिया रंग महलिया के, स्वामी सुनी सरकार ।
बोले बचनिया राजा भर्तृहरि, तिरिया सुन ऽ हमरी बात ।
तहरे करम तिरिया राज लिखल बाड़े, हमरे लिखल बैराग ।
जोगी बनने यानी वैराग्य लेने की संस्कृति को जारी या झारी गीतों में भी देखा जा सकता है जहां हासन योगी बनकर घर से निकल रहे हैं और उनकी अम्मा योगी बनने का कारण जानना चाहती हैं, ठीक भर्तृहरि प्रसंग की तरह।
हासन घरवा से निकलेले बन के जोगिया उनकी हथवा में तुमड़ी बगल में झोरिया अम्मा खड़ी दरवजवा पूछेली बतिया
बेटा कवनी करनवा भइल जोगिया
अम्मा हमरी करमवा लिखल बा जोगिया
कबीर और जोगी गायकी, दोनों, पसमांदा मुसलमानों के कारण पूर्वांचल में फैली और हिन्दू-मुस्लिम धर्म के श्रमशील समाज में व्याप्त पाखंडों पर प्रहार किया। उनकी इस लोक संस्कृति के कारण कट्टरपंथियों में बेचैनी हुई। उन्होंने कबीर और जोगी गायकी के समरसता को बदनाम करने के लिए होली के अवसर पर गाये जाने वाले अश्लील गीतों को कबीर और जोगिरा नाम दे दिया।
जोगी परंपरा से मिलती-जुलती एक परंपरा बाउल गायन की बंगाल में प्रचलित हुई। कहा जाता है कि बाउल, पूर्वी बंगाल से पश्चिम बंगाल आने-जाने वाले जहाजों पर सवार मुसाफिरों को अपने गायन से भक्ति-भाव में डुबो देते थे। बाउल गायन में एक ओर राम-कृष्ण से संबंधित धार्मिक भाव छिपे होते हैं तो दूसरी ओर कबीर के फक्क्ड़पन का प्रवाह होता है। पहले सन्यासी के भेष में बाउल मूलतः बंगलादेशी मुसलमान हुआ करते थे जो अपनी रोजी-रोटी के लिए इस पार से उस पार, महीनों समुद्री लहरों के संग अपनी गायकी का नमूना पेश करते थे।
नाई का नउवाझांकर
नउवाझांकर, नाइयों का विशिष्ट गीत रहा है जो झांझा लगी खजड़ी को बजाकर गाया जाता है । नउवाझांकर के गीत स्पष्ट सुनाई नहीं देते । प्रमुख गायक तो विलंबित स्वर में गाता है जिसे बाकी गायक द्रुत गति से दुहराते हैं । एक ही चरण को बार-बार खंजड़ी पीट-पीट कर दुहराते हैं । इसी से अपनी-अपनी ढफली, अपना-अपना राग, के लिए ‘का नउवाझांकर मचाय हो’ कहा जाता है । अब तो नाइयों ने नउवाझांकर गाना बंद कर दिया है । नउवाझांकर में प्रायः कबीर, सूर, और तुलसी के पद गाये जाते थे । पूर्वांचल के नाइयों में ज्यादातर मुसलमान ही होते थे।
गड़ेरियों के गीत
गड़ेरिये, रात में सूप बजाकर गाते थे । वैसे भोजपुरी क्षेत्र में बजाय पश्चिमी उतर प्रदेश के गड़ेरिया गीत देखने को मिलते थे । ज्यादातर गड़ेरिये, मुसलमान ही होते थे।
हम कह सकते हैं कि पूर्वांचल सहित हमारी तमाम लोक संस्कृतियांे में समाजिक नवजागरण का अलख जगाने वाले पसमांदा मुसलमानों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। पूर्वांचल को अपनी कर्मभूमि बना कर कबीर, गोरखनाथ और बुद्ध जैसे विचारकों ने सनातनी पाखंडों, जातिवाद और छुआछूत को ललकारने का साहस किया है। लोक संस्कृतियों के वादन एवं गायन के हर पक्ष में मुसलमानों का योगदान अतुलनीय रहा है । बिस्मिल्ला खां के शहनाई की धुन को शायद ही हम भूल पायें । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि मुस्लिम और हिन्दू समाज की लोक संस्कृतियां, एक-दूजे में घुली-मिली रही हैं । आज भी राजस्थान के रणथम्भौर किले के दूसरे दरवाजे तक ताजिया ले जाने की रस्म निभाई जाती है और देश के लाखों मजारों और उर्स मेलों में हिन्दू-मुस्लिम समुदाय समान रूप से भाग लेता रहा है। विभाजनकारी शक्तियों के मजबूत होने या धर्माधिकारियों द्वारा कट्टरता का पक्ष लेने के कारण ही दोनों समुदायों में दूरियां पैदा की जा रही हैं। भविष्य में लोक संस्कृतियों का आपसी मिलन ही वह बिन्दु है जहां मनुष्यता सांस ले सकती है।
‘लोकरंग-3’ के माध्यम से हम पाठकों के सामने हैं। बिना किसी अकादमिक सहयोग के विगत दस वर्षों से हम ‘लोकरंग सांस्कृतिक समिति’ के जुझारू सदस्यों के सहयोग से लोकरंग का वार्षिक आयोजन करते रहे हैं। लोक संस्कृतियों के सामाजिक पक्ष को सामने लाने के उद्देश्य से हम लोकरंग वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन भी करते रहे हैं । हमने पुस्तक के रूप में लोक संस्कृतियों के कुछ जरूरी पृष्ठों को समेटा है और ‘लोकरंग-1’ और ‘लोकरंग-2’ का प्रकाशन किया है। हमें विश्वास है कि आप भी हमारे इस अभियान में सहयोगी बनेंगे। इस पुस्तक को तैयार करने में सम्मानित लेखकों के अलावा चित्रकार अर्जुन सिंह, पत्रकार-मनोज कुमार सिंह और आशा कुशवाहा ने विशेष सहयोग दिया है। हम सभी के आभारी हैं।
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा