संपादकीय
यह हमारा प्रयास
लोकरंग नौवें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। विश्वास नहीं होता कि बिना किसी संस्थागत या सरकारी सहयोग के, गंवई जनता की जिद्द, जद्दोजहद और जागरुकता के बल पर इस आयोजन ने अपनी अलग पहचान बना ली । इसकी अलग पहचान देने में मेरे तमाम संगी-साथियों और लोक कलाकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह पहचान इसे उन तमाम संगठनों की गतिविधियों से भिन्न रूप में मिली है जो लोक संस्कृतियों को व्यापार और व्यवसाय की तरह चलाते हैं या जिसे वे मात्र मनोरंजन की वस्तु बनाये रखना चाहते हैं। हमने विगत नौ वर्षों में अपने आसपास के तमाम श्रमशील समाज के बीच की संस्कृतियों को उनके मूलरूप में सामने लाते हुए यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि दरअसल लोक संस्कृतियों का पूरा का पूरा संसार, गैर अकादमिक रहा है। इसे जिन लोगों ने संस्थागत रूप देने का काम किया, वे सत्ता प्रतिष्ठानों के करीबी रहे या उच्चजातीय मानसिकता को संरक्षित करने वाले वे कुलीनतावादी रहे, जिनकी नजरों में लोक संस्कृतियां, महज संस्कारों की संस्कृतियां मानी जाती हैं । मेरा मानना है कि अपने आदिमरूप में लोकसंस्कृतियां, हासिये के अनपढ़ समाज के वाचिक परंपरा की अभिव्यक्तियां हैं, उनके उद्गार हैं, खासकर महिलाओं के।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे द्वारा संपादित किताब-‘लोकरंग-2’ की समीक्षा लिखते हुए एक विद्वान- कालूलाल कुलमी, उदयपुर ने बहुत सारगर्भित टिप्पणी की थी कि-
‘लोक जीवन पर बहुत लिखा जा रहा है। कई लेखक, विचारक, पत्र-पत्रिकाएं इसको अंजाम दे रहे हैं। ऐसे में यह लोक जीवन के तमाम पहलुओं पर विस्तार से विचार करने का बहुत अनुकूल समय है। जीवन के विविधताधर्मी होने में लोक जीवन के बहुरंगी होने की बहुत भूमिका रही है। जिस तरह के रंग यहां से जीवन में रिसते रहते हैं उससे यह समृद्ध होता रहा है। जिस श्रमधर्मी वर्ग को सदियों से नकार दिया गया और सिर्फ जिसके श्रम का दोहन किया जाता रहा उसने अपने श्रम से सिरजा है लोक के रंगों को, उनमें जीवन के तमाम रंग भरे हैं इन मेहनत करनेवालों ने। जिनका इतिहास में कहीं कोई जिक्र नहीं जिनको राजा महाराजाओं के कथित महान इतिहासकार चारण, भाटों ने अपनी पोथी में उद्धत करने लायक ही नहीं समझा। जबकि वास्तविक इतिहास के निर्माता वही लोग थे। जिन आदिवासियों के जीवन के फोटो खींच कर कुछ लोग उनके जीवन का मजाक बना रहे हैं उनको इस बात की खबर ही नहीं है कि वह उनका अपना जीवन है। जिसमें वे सुखी है। तुम सभ्य हो, फिर उनके जीवन में क्यों दखल कर रहे हो। जिन आदिवासियों को सभ्यता के नाम पर उजाड़ा जा रहा है क्या उनके पास उनकी सभ्यता नहीं है? फिर ये कौन लोग है जो उनको उनकी अपनी ही जमीन से विस्थापित कर रहे हैं। दुनिया में जितनी तेजी से आदिवासी खत्म हो रहे हैं उतनी ही तेजी से लोक भाषाएं और उनका साहित्य खत्म हो रहा है। उनको बाजार के हवाले किया जा रहा है।’
कालूलाल कुलमी आगे लिखते हैं-‘लोक और शास्त्र के विभेद ने दो गतिशील संस्कृतियों के बारे में बताया। फिर सत्ता के किले को शास्त्र ने भेदा तो जाहिर है वह श्रेष्ठता का दामन लपेटकर चला। उस पर कुछ छांदस मूर्ख कुण्डली मार कर बैठ गये और वे अपनी मनमानी, मनगढ़त परिभाषाएं रचते गये। इस कूप जल में बहता नीर कहां ठहरता! यहीं से शीतयुद्ध शुरू हो गया। जातिप्रथा ने जिस तरह से एक विशाल समुदाय के श्रम का नाजायज फायदा उठाते हुए उसे मनुष्य तक मानने से मना कर दिया। महात्मा बुद्ध इस व्यवस्था को चुनौती देते हैं। सिद्ध और नाथों का साहित्य इसका उदाहरण है। तुलसी अपनी तमाम महानताओं के बावजूद कलिकाल से परेशान है। आखिर क्यो? शूद्रों के उत्थान से यह महान हिंदू सम्राट परेशान क्यों होता है? जबकि वह तो लोक कल्याण का उद्देेश्य लेकर चला था। जिस अनाचार का नाम लेकर बौद्ध साहित्य को नकारा जाता है उस अनाचार से तो हमारा पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। काम भाव को लेकर भारतीय मिथकीय साहित्य में किसी तरह का कोई पर्दा करनेवाला भाव नहीं है। अवधी, भोजपुरी, बुंदेलखंड़ी, राजस्थानी और तमाम लोक भाषाओं में इस तरह के अनंत लोक गीत है जिनसे इसके संघर्ष के बारे में जाना जा सकता है।’
तो लोकसाहित्य के श्रमशील पक्ष के प्रति अपनी पक्षधरता अपनाते हुए लोकरंग ने समाज के गंवई समरसता के पतन के विरूद्ध संघर्ष जारी रखे हुए है। मुझे खुशी है कि इस कार्य में देश के तमाम लोग सहयोग करने आगे आ रहे हैं और हम निरंतर मजबूत होते जा रहे हैं ।
‘लोकरंग ’2016 में तमाम ऐसी टीमें भाग ले रही हैं जो हासिये के समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं । गोड़उ नृत्य, आदिवासी करमा नृत्य, जो ‘लोकरंग 2016’ में शामिल हैं, हासिये के समाज के नृत्य हैं। मैं पूर्व राज परिवार, सरायकेला का आभारी हूं, जिन्होंने ‘सरायकेला छऊ नृत्य’ की एक आदिवासी टीम, लोकरंग में भेजने की स्वीकृति दी । सरायकेला छऊ नृत्य, अपनी अलग विशेषता के कारण 1938 से ही विदेशों में प्रस्तुत किया जा रहा है। पूर्व राज परिवार के प्रताप आदित्य सिंह देव ने बहुत ही सहजता से मेरे अनुरोध को स्वीकार किया । सिद्धी, मध्य प्रदेश के गांव बकबा की टीम विशुद्ध रूप से गंवई टीम है । जयपुर का ‘राजा भर्तृहरि-गोपीचंद तमाशा’ जिस परिवार द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है उसकी परंपरा दो सौै पचास वर्ष पुरानी है। उस परिवार के सदस्य, दिलीप भट्ट हमारे आयोजन में शामिल हंै, यह हमारे लिए खुशी की बात है। लोकरंग में प्रतिवर्ष पटना की भागीदारी, किसी न किसी रूप में रहती आई है। इस बार भी हिरावल के साथ-साथ ‘विश्वा’ की नाट्य टीम हमारे बीच हैं ।
देश के तमाम साहित्यकार और लोकसंस्कृति मर्मज्ञ इस आयोजन के साक्षी रहे हैं और जनपद के पत्रकार साथियों ने जिस उत्साह से हमारा साथ दिया है, उसके लिए संस्था सभी का आभारी है और इस आह्वान के साथ इस आयोजन में जुटी हुई है कि आप सभी कंधे से कंधा मिला कर चलते रहेंगे ।
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा