सम्पादकीय
लोक संस्कृतियां श्रमशील समाज की जिजीविषा की ऊर्जा हैं
मनुष्य द्वारा निर्मित परम मानव या एकात्मवादी अदृश्य सत्तायें, जिन्हें सर्वव्यापी, सार्वभौमिक कहा जाता है, वे व्यवहार में न तो सार्वभैमिक होती हैं और न एकात्मवादी । ईश्वर, खुदा या ईशु की विभिन्न सत्तायें और सिद्धांत समाज को एक जूट करने के बजाय, विभाजित किये रहता हैं । समरसता घोलने के बजाय समरसता को तोड़ता है । ऐसा इसलिये होता है कि परम मानव या अदृश्य सत्ताओं की निर्मिति, सामाजिक संघर्ष, यथार्थ, परिवेश से परे शून्य से की गई होती है । ऐसे में वे मानवीय निकटता, प्रतिपालकता या प्रजावत्सलता के तमाम बहुप्रचारित गुणों से दूर होते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे कि वैश्विीकरण द्वारा निर्मीत सामाजिक संबंध तमाम दावों के बावजूद न तो सार्वभौमिक हो सकते हैं और न सर्वव्यापी । भले ही पूरी दुनिया इंटरनेट या फेसबुक में समा जाये । वह पूरी तरह सुपसोनिक या डिजीटल हो जाये । वैश्वीकरण की नई अर्थव्यवस्था में सामाजिक संबंधों के धता बता कर एक अमानवीय अर्थनीति निर्मित होती है जो केवल धन की लोलुपता को सार्वभैमिक करती है । वहां सामाजिक कला, संस्कृति, साहित्य के लिये कोई स्थान नहीं बचता । उनकी कलायें देह की मांसलता से उपजती हैं और अर्थ की गर्मजोशी में निगल जी जाती हैं । सामाजिक संबंधों की सर्वव्यापी बनाने की कला केवल लोक कलाओं में रही हैं और वे ही सदियों से विभिन्न प्रांतों, देशों में एकात्मकता रचती रही हैं । मसलन कि जब गांव का श्रमशील तबका और आदिवासी, सात समंदर पार के बारे में जानता न था, वास्कोडिगामा और कोलम्बस ने दुनिया की खोज न की थी तब भी दक्षिण अफ्रिका, रूस, मिश्र के जंगलों में जो वाद्य यंत्र यथा ढोलक, झाल, बांसुरी, ढफली बजते थे, वे आकार-प्रकार में कमोबेश वैसे ही थे जैसे कि अपने देश में ।
लोकसंस्कृतियों में सामुहिकता, समरसता का समावेश, संवेदनशीलता को एकात्मवादी बनाने के गुण प्रारंभ से रहे हैं । बिना एक-दूसरे के बारे में जाने-समझे ऐसा कैसे हुआ ? समान आकार-प्रकार के वाद्ययंत्रों, गायकी के तरीकों, नुत्य की भंगिमाओं का निर्माण ठीक उसी प्रकार हुआ जैसा कि हवा, पानी, आंख और नाक । यानी कि प्रकृति की निर्मित से तारतम्य बना कर लोकसंस्कृतियांे का विकास हुआ है । वे उतनी ही पुरानी हैं जितनी की हमारी सृष्टि । सिंधुघाटी सभ्यता की कलाकृतियों में नृत्य करती नर्तकी की कांसे की सुन्दर प्रतिमा का उल्लेख किया जाना जरूरी है जिसमें नर्तकी के पैर थोड़ा आगे बढ़े हुये हैं जो संगीत के लय के साथ उठते जान पड़ते हैं । अपनी मुद्रा की सरलता एवं स्वाभाविकता के कारण यह मूर्ति सबको आश्चर्यचकित कर देती है।1 हडप्पा से प्राप्त बिना सिर के काले पत्थर की एक नर्तक की मूर्ति मिली है जिसमें नर्तक दायें पैर पर खड़ा है तथा बायां पैर आगे उठा हुआ है । इसकी मुद्रा पूर्णतया गतिशील है । ऋगवैदिक काल में नर्तक-नर्तकियों का अगल वर्ग था । कीथ का विचार है कि इस काल में धार्मिक नाटकों का प्रदर्शन होता था । उत्तर वैदिक काल में ही गंधर्व और अप्सरा नाच का उल्लेख मिलता है । मौर्य काल में भी नट, नर्तक, गायक, वादक, चारण, विदूषक आदि के द्वारा मनोरंजन होने का उल्लेख मिलता है । शुंग काल में बने वेदिका, स्तम्भों तथा तोरण द्वारों में महात्माबुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं को चित्रित किया गया है । सातवाहन राजा हाल ने गाथासप्तशती नामक प्राकृत भाषा के श्रृंगार रस प्रधान गीति-काव्य की रचना की थी । गुणढ्य ने बृहत्कथा नामक ग्रंथ की रचना की थी । चेदि शासक शतकर्णी ने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व, राज्यारोहण के तीसरे वर्ष अपनी राजधानी में नृत्य, संगीत, नाटक द्वारा उत्सव मनाया था । कनिष्क शासन में अश्वघोष जैसे राजकवि रहते थे जिन्होंने शारिपुत्र प्रकरण नाटक ग्रंथ की रचना की थी । समुद्रगुप्त की मुद्राओं में उसे वीणा बजाते दर्शया गया है । इसी काल के कालिदास के संस्कृत नाटकों और अजंता, बाध गुफाओं के गुफा चित्रों के बारे में हम जानते ही हैं । हर्ष (लगभग 640 ई0)को रत्नावली नामक नाटक का रचयिता माना जाता है । खजुराहो मंदिरों पर लोक कलाकरों का अंकन और कोणार्क सूर्य मंदिर से नृत्य मंडप लोक संस्कृति के आदिम महत्वों से हमें अवगत कराते हैं । नटराज मूर्ति की परिकल्पना भी नृत्य भंगिमा का उदाहरण है । ऐसे ही तमाम तथ्य मनुष्य के विकासक्रम में जिजीविषा की ऊर्जा के रूप में, समाज की नीरसता में, सरसता रूपी घुलनशील संस्कृति को स्थापित करने के रूप में और सबसे बढ़कर समाज में संवेदनात्मक आवेगों को स्थापित करने के रूप में लोक संस्कृतियांे को सहेजते आये हैं । लोक संस्कृतियों के सहारे भी हम जीवंत समाजों केा समझने का हथयार हासिल करते आये हैं । आदि काल से लेकर वर्तमान काल तक एवं देशकाल के बाहर भी लोकसंस्कृति में नृत्य, गायकी या वादन के प्रकार कुछ भी रहे हों, हर कहीं, हर काल में तरंगित मन खेत, खलिहानों में झूमता था और गीतों की लयबद्धता बंद खिड़कियों के बाहर पहुंचती रही है । शायद ही किसी दुनिया में ऐसे लोकगीत रचे गये हों जो बंद खिड़कियों के बीच गाये, सुनाये जाते रहे हों । जिन्हें सार्वजनिक करने की मनाही हो । यानी की लोक और लोकसंस्कृति ही सार्वभौमिकता, सर्वव्यापकता की परिधि में आती है ।
लोकरंग 2015 अपने आठवें मुकाम पर है और आगे की यात्रा में पूर्व की भांति जनपक्षधरता को रेखांकित करने और अपसंस्कृतियों के नकार के साथ मैदान में डटे रहने का विचार है । हम इस आयोजन के साथ, अपने स्थानीय लोक संस्कृति, साहित्य और इतिहास को सदा रेखांकित करते आये हैं ।
लोकरंग का यह आयोजन, पड़रौना के स्वाधीनता संग्राम के नायकों- हनुमान प्रसाद कुशवाहा , ब्रह्मदेव शर्मा, मुंशी तप्तीलाल और मोती भगत को समर्पित है।
असहयोग आन्दोलन के दौरान पड़रौना के आसपास के किसानों और गरीब जातियों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था । विगत वर्ष हमने पड़ोसी जनपद चैरी चैरा के किसानों के बलिदान को स्मरण किया था और इस वर्ष हनुमान कुशवाहा, ब्रह्मदेव शर्मा, मुंशी तप्तीलाल और मठिया माफी के मोती भगत द्वारा असहयोग आन्दोलन के दौरान किए गये संघर्षों को याद कर रहे हैं । ये ऐसे रणबांकुरे हैं जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के प्रतिकार में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी । शराब, गांजा, भांग की बिक्री के विरोध में धरना दिया था तथा सरकार विरोधी सभाओं में अपनी भागीदारी दी थी । स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान, 27 अप्रैल, 1921 को डिप्टी मजिस्ट्रेट कसया ने जनपद के नायकों, हनुमान प्रसाद कुशवाहा और ब्रह्मदेव शर्मा को 9-9 माह की कैद की सजा सुनाई थी । अगले दिन 28 अप्रैल को इस सजा के विरोध में पडरौना रेलवे स्टेशन पर 2000 की भीड़ इकट्ठा हो गई थी । उस दिन दोनों कैदियों को जिला कारागार, गोरखपुर ले जाया जा रहा था । स्थानीय निवासी मुन्शी ढालूराम के प्रयास से उपस्थित जनता दोनों बहादुरों के ऊपर फूल वर्षा करते हुए जयकार कर रही थी । इस घटना के तीन दिन बाद, 30 अप्रैल, 1921 को तप्ती लाल को भी 9 माह की सजा हुई । तप्ती लाल के खिलाफ मुकदमा, हनुमान प्रसाद कोईरी और ब्रह्मदेव शर्मा के विरूद्ध चल रहे मुकदमें के साथ-साथ ही चल रहा था । जब मुकदमा चल रहा था, वहां 10 हजार की भीेड़ इकट्ठा हो गई थी । जब तप्तीलाल को गिरफ्तार किया गया था, जनता में आक्रोश देखा गया । पथराव की संभावना को देखते हुए पुलिस बंदूकों में गोली भर कर तैयार थी परन्तु एक पंजाबी साधू के प्रयास से जनता शांत रही । पंजाबी साधू पर बाद में मुकदमा चला । सरकार का मानना था कि जिस प्रभावशाली साधू के बस में 10 हजार जनता हो, वह निश्चय ही खतरनाक आदमी हो सकता है । तप्तीलाल को जब जिला कारागार भेजा जा रहा था तब रेलवे स्टेशन, पड़रौना पर 4000 की भीड़ जमा हो गई थी । मठिया माफी के मोती भगत पर भी दफा 504 व 352 का मुकदमा 3 मई, 1921 को सुना जाना था लेकिन चार दिन पहले ही, 30 अप्रैल को उन्हें गिरफ्तार कर जमानत कराने को कहा गया । मोती भगत ने जमानत कराने से इन्कार किया और जेल चले गये । ब्रिटिश औपनिवेेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जनपद के इन महान क्रांतिकारियों की याद में हम लोकरंग 2015, के आयोजन को समर्पित कर रहे हैं ।2
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा
संदर्भ
1. This figure, cast in one piece, astonishes one with the care and naturalness of its posture.-चारलेटन, बरीड इम्पायर्स, पृष्ठ 154
2.स्वदेश, 8 मई, 1921, पृष्ठ 9 ।