यह आकाशवाणी युग का समापन काल है और लोक गायकी का परिदृश्य, मीडिया द्वारा बनाया-बिगाड़ा जा रहा है। अब लोक कलाकारों की खोज, परख और उपयोग का मतलब, व्यावसायिकता तक सीमित होकर रह गया है। कभी आकाशवाणी केन्द्रों ने गांव-गिरांव के सामान्य लोक कलाकारों को जमीन से उठा कर, बड़े मंचों तक पहुुंचाया था। उनकी प्रतिभा को आधार मुहैया कराया था। वहां से निकले अनेक अनमोल हीरे, भोजपुरी दुनिया की थाती बन कर रह गये । उन्हीं में से निकले दो अनमोल हीरों का नाम है-मोहम्मद खलील और भोलानाथ गहमरी। सत्तर-अस्सी के दशक में मोहम्मद खलील इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, पटना, बम्बई आदि आकाशवाणी केन्द्रों से गाते थे। 1973-74 के आसपास की बात है। मैं तब छठीं या सातवीं कक्षा का छात्र था । मेरे चचेरे भाई बिहार में नौकरी करते थे। उनके पास रेडियो था। वह जब गांव आते, रेडियो लाते। तभी मैं गोरखपुर केन्द्र से प्रसारित एक गीत सुन, भाव-विभोर हो उठा था-कवना खोतवा में लुकइलू, आहिरे बालम चिरई । आहि रे बालम चिरई….।
इस गीत के गायक थे मोहम्मद खलील और रचयिता थे गाजीपुर जनपद के गहमर गांव के रहने वाले भोलानाथ गहमरी । इन दोनों महान विभूतियों का भोजपुरी गीतों और गायकी को समृद्ध करने में ऐतिहासिक योगदान है। दोनों दो रूप मगर एक जान थे। दोनों के सहयोग से भोजपुरी लोेक गीतों कीउम्दा रचना हुई और उम्दा स्वर से गायकी परवान चढ़ी। इसलिए हम लोकरंग 2020 के आयोजन में इन दोनों महान शख्सियतों को एक साथ याद कर रहे हैं। इन्हें अलग कर पाना संभव भी नहीं है।
मोहम्मद खलील का जन्म सन 1935-36 में भवानीपुर जिराट, मोतीहारी (वर्तमान में इसे बापू धाम कहा जा रहा है), पूर्वी चम्पारन में हुआ था। इनके पिता जनाब शेख मोहम्मुदीन का देहांत बचपन में ही हो गया था । इस कारण से इनकी शिक्षा-दीक्षा बहुत नहीं हो पाई। उनके बड़े पुत्र आजाद के अनुसार, उनके अब्बा पढ़े-लिखे थे। संभवतः प्राथमिक शिक्षा मिली थी उन्हें। मोहम्मद खलील के बड़े भाई मोहम्मद क़ासिम रेलवे में ड्राइवर थे और बनारस में रेलवे क्वार्टर में रहते थे इसलिए पिता के देहांत के बाद खलील बनारस आ गये। मोहम्मद कासिम ने रेलवे के अधिकारियों से अनुरोध कर अपने छोटे भाई को चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में नौकरी लगवा दी । मोहम्मद खलील को कार्यभार ग्रहण करने बलिया जाना पड़ा। इस प्रकार मोहम्मद खलील ने रेलवे की नौकरी की शुरुआत बलिया से की।
मोहम्मद खलील की पत्नी का नाम नुरैशा खातून था । युवा खलील जब लगभग 29 वर्ष के रहे होंगे, 1964 के आसपास, अल्प आयु में ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। उस समय उनके दोनों पुत्रों की उम्र लगभग दो और तीन वर्ष रही होगी। इसलिए उनके बच्चों के पालने-पोसने की जिम्मेदारी उनकी मां मदीना को उठाना पड़ा। खलील के बड़े बेटे, मोहम्मद आजाद वर्तमान में इलाहाबाद में रेलवे मुख्यालय पर मुख्य कार्यालय अधीक्षक के पद पर तैनात हैं। छोटे पुत्र का नाम मोहम्मद सज्जाद था और उनका अल्पायु में निधन हो गया था। पत्नी के असमय चले जाने का गम कलाकार को सालता रहा और खलील शुगर के मरीज हो गये ।
मोहम्मद खलील को गाने-बजाने का शौक था। बलिया में रेलवे कर्मचारी रहते उन्होंने वहां ‘पूर्वांचल झंकार पार्टी’ नामक एक गायन दल बना लिया। बलिया के सीताराम चतुर्वेदी, भोजपुरी में गीत लिखा करते थे । वह खलील की गायकी से बहुत प्रभावित थे। उनका एक गीत था- छलकल गगरिया मोर निरमोहिया । इस गीत को उन्होंने खलील को दिया। खलील ने गीत की जो धुन बनायी और जिस लय से गाया, वह वाह-वाही लूट ले गया। चारों ओर खलील की गायकी का डंका बजने लगा। इसी बीच 1965 में खलील का ट्रांसफर बलिया से इलाहाबाद हो गया। इलाहाबाद नया शहर था उनके लिए । बलिया की टीम छूट गई थी । इसलिए शाम की बैठकी और अभ्यास बंद हो गया था। कार्यक्रमों के लिए बलिया से टीम को बुलाना आसान न था। दूसरी ओर गाने का शौक ऐसा कि बिन गाये रहा न जाये। आखिर खलील ने इलाहाबाद में ही रेलवे के कमर्चारियों के बीच से अपनी गायन पार्टी बनाने का प्रयास किया और सफल हुए। वह रामबाग रेलवे स्टेशन पर नौकरी करते थे । हारमोनियम बजाना उन्हें नहीं आता था। गीतों के धुन बनाने का उनके पास दूसरा ही तरीका था। वह तबला बजा लेते थे। । जब वह बनारस आये थे तभी कम उम्र में ही बनारस के अनोखे लाल से तबला बजाने की दीक्षा ली थी। वह बायें तबले यानी डुग्गी को गोद में लेकर धुन निकालते थे। उन्होंने रामबाग रेलवे स्टेषन के पास ही मलाकराज गांव के उदयचंद नामक एक बालक को हारमोनिया बजाने के लिए चुना और रेलवे के ही एक कर्मचारी मेवालाल को ढोलक पर संगत के लिए । उदयचंद के बारे में मेवालाल ने ही बताया था। बाद में खलील ने रेलवे के अधिकारियों से अनुरोध कर उदयचंद को भी रेलवे में नौकरी पर रखवा दिया था। इस प्रकार इलाहाबाद में रेलवे कर्मचारियों के सहयोग से ही ‘पूर्वांचल झंकार पार्टी’ फिर खड़ी हो गई। बाद में उन्हीं उदय चंद्र ने अपना नाम बदलकर उदयचंद परदेशी रख लिया था।
अवधी क्षेत्र इलाहाबाद में भोजपुरी गायन टीम बनाना थोड़ा मुश्किल काम था। शुरू में उनकी गायकी का मजाक भी बनाया गया। हूट भी करने का प्रयास हुआ मगर खलील ने अंततः भोजपुरी का लोहा मनवा ही लिया।
प्रसार भारती ने अपने केन्द्रीय अभिलेखागार से मुहम्मद की गायन टीम की जो एक मात्र वीडियो जारी किया है, उसमें वह अपनी टीम के साथ -जन जा विदेशवा की ओर, बलमू हो गा रहे हैं। इस वीडियो से स्पष्ट है कि इसमें हारमोनिया पर सह गायक के रूप में उदयचंद हैं जबकि उनके बगल में खलील के बड़े पुत्र आजाद हैं। बांसुरी पर हजारी प्रसाद हैं जबकि तबला पर अरुण जायसवाल और उनके बगल में इब्राहिम खान मौजूद हैं।
खलील ने अनेक गानों को स्वर दिया है। प्यारपरक गीतों के गाने में वह बेजोड़ थे। महेन्द्र मिसिर का गीत ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द’ को उन्होंने मार्मिक स्वर दिया। उनका विलंबित सुरीला स्वर, इस गीत को ऊंचाई प्रदान कर गया। वैसे तो इस गीत को कई गायकों ने गाया है मगर विस्थापन और विरह वेदना की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के लिए, इस गीत को खलील के मुख से बार-बार सुनने को मन करता है। जब वह तान देकर गाते थे-‘एक त मरीला हम नागिन के डसला से, दूसरे सतावति बा सेजरिया हे, हे ननदो दियना जरा द’ तब तन-मन सिहर जाता है।
मोहम्मद खलील का गाया अंतिम गीत एक निर्गुन है जिसे भोलानाथ गहमरी ने लिखा था-लाली-लाली डोलिया हमरे दुअरिया, पिया लेहले अहिले संगवा में चारू हो कहार’। इस गीत को मोहम्मद खलील ने पटना में बिहार दिवस के अवसर पर गाया था। बिहार दिवस 1991 में पटना में सूचना प्रसारण मंत्रालय की ओर से आयोजित किया गया था । यह अप्रैल, 1991 का महीना था और रमजान का महीना चल रहा था। पटना में सूचना प्रसारण मंत्रालय में तैनात मशहूर गायक संता सिंह जी ने अपने हस्ताक्षर से खलील को बुलावा पत्र भेजा था। खलील तब बीमार चल रहे थे। उनकी देखरेख की जिम्मेदारी छोटे बेटे सज्जाद ने अपने ऊपर ले रखी थी। दोनों बेटे नहीं चाहते थे कि अब्बा बीमारी की हालत में पटना जायें मगर संता सिंह के अनुरोध को खलील टाल न सके। जिस निर्गुन के माध्यम से खलील जीवन के प्रस्थान को व्यक्त कर रहे थे, उस की परणति एक दिन बाद देखने को मिली । वह अपने बेटों के साथ पटना से कार्यक्रम कर बाम्बे-जनता ट्रेन से लौट रहे थे । वह 06 अप्रैल की मनहूस सुबह थी। इलाहाबाद का नैनी पुल आ चुका था। बेटे ने अपने अब्बा को जगाने का जब प्रयास किया तो पाया कि वह तो दुनिया से विदा ले चुके थे। इस घटना के चष्मदीद गवाह मोहम्मद आजाद बताते हैं कि पटना के मंच से विदा लेते समय अब्बा ने सभी को हाथ जोड़कर, प्रणाम किया था तथा झुककर इस तरह विदा लिए थे जैसे फिर कभी आना न हो। हमें क्या पता था कि वह वास्तव में दुनिया से विदा लेने जा रहे हैं और चार कहारों को बुला रहे हैं। इस प्रकार मात्र 55 वर्ष की अल्पायु में 06 अप्रैल, 1991 में मोहम्मद खलील हमसे विदा ले चुके थे। शायद डायबिटीज की गंभीर बीमारी में उन्हें दिल का दौरा पड़ा हो या ब्रेन हैमरेज हुआ हो ।
उनकी मृत्यु की खबर, भोलानाथ गहमरी के लिए बेहद आहत करने वाली थी। उन्होंने एक खत के माध्यम से अपने गायक को श्रद्धांजलि दी थी। खत का प्रारंभ उन्होंने किया था- मुझे कितने लोग जानते होते ? अर्थात गहमरी जी मानते थे कि उनकी ख्याति में खलील का महत्वपूर्ण योगदान है। और अंत में उन्होंने दो पंक्तियां लिखीं थीं- सून होई पिंजरा जब पंछी उड़ि जाई। घर-आंगन देहरी पर गीत ना सुनाई।
भोलानाथ गहमरी को खलील अपना गुरु मानते थे। भोलानाथ गहमरी का जन्म 11 दिसम्बर 1924 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रामचन्द्र लाल था जो बर्मा में सरकारी सेवा में थे । गहमरी की प्रारम्भिक शिक्षा बर्मा में हुई । भारत आकर उन्होंने इन्टर मीडिएट की शिक्षा ग्रहण किया और विद्युत विभाग, इलाहाबाद में नौकरी करने लगे। उनकी प्रथम रचनाओं का संग्रह ‘मौलश्री‘ 1959 में प्रकाशित हुआ। 1964 में पहली पुस्तक, बयार पुरवईया प्रकाशित हुई । दूसरी, 1980 में ‘अजूरी भर मोती’ प्रकाशित हुई जिस पर उन्हें 1982 का राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार प्रदान किया गया । गहमरी द्वारा रचित अंतिम संग्रह- लोक-रागनी है। गहमरी ने नाटकों की भी रचना की थी मगर वे दोनों नाटक अप्रकाशित रह गये। हिन्दी में ‘लोहे की दीवार’ और भोजपुरी में ‘थाती’ नामक उनका लिखा नाटक पाठकों के सम्मुख नहीं आ पाया। थाती नाटक, माॅरिशस गये गिरमिटिया मजदूरों की कथा-व्यथा पर आधारित था। गले में तकलीफ के चलते गहमरी का निधन 9 दिसम्बर 2000 को हुआ। इनकी प्रसिद्ध रचना है-‘कांट-पूस के भरल डगरिया धरि बचा के पंाव रे । माटी ऊपरा छानी-छप्पर, उहो हमरो गांव रे। गहमरी के चार पुत्र और दो बेटियां थीं। वर्तमान में उनके एक सुपुत्र श्री हेमंत कुमार, इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज हैं। वह बताते हैं कि केवल पिता के वे ही गीत प्रकाशित हो पाये जो कवि सम्मेलनों और रेडियो स्टेशनों पर गाये गये थे जबकि सैकड़ों गीत अप्रकाशित ही रह गये थे ।
भोलानाथ गहमरी ने एक से एक उम्दा गीत लिखे । खलील और गहमरी, दोनों संयोग से एक ही शहर में नौकरी कर रहे थे। श्री बालेश्वर पाण्डेय ऊर्फ बिल्लू नामक एक सज्जन ने एक बार गहमरी को खलील की गायकी के बारे में बताया और एक दिन वह खलील को लेकर गहमरी के पास पहुंच गये। उस मिलन के बाद फिर तो दोनों कलाकारों ने इलाहाबाद के अवधी क्षेत्र में भोजपुरी का डंका बजा दिया। एक बार इलाहाबाद में मुकेश नाइट का आयोजन किया गया था परन्तु जनता की बेहद मांग पर वहां मोहम्मद खलील को बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मंच पर आना पड़ा। गहमरी ने इलाहाबाद में ‘भोजपुरी संसद’ नामक संस्था का गठन किया था। उन्हीं दिनों बनारस से भोजपुरी कहानियों का प्रकाशन स्वामीनाथ सिंह कर रहे थे। उन्होंने गहमरी को भोजपुरी में एक बड़ा कार्यक्रम कराने का सुझाव दिया। गहमरी ने अपने गांव गहमर में 1966-67 में भोजपुरी संसद की ओर से एक कार्यक्रम आयोजित किया । बाद में ‘भोजपुरी संसद’ संस्था का विलय अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन में कर दिया गया। उस समय माॅरिशस से बहुत सारे विद्यार्थी बनारस और इलाहाबाद पढ़ने आते थे । वे इलाहाबाद में गहमरी से जरूर मिलते। कई तो उन के यहां ठहरते थे।
गहमरी के गीतों की रचना में गुरु और चेले, दोनों के भाव समाहित हैं। उनमें दोनों की आत्मा की धड़कन है। मोहम्मद खलील और भोलानाथ गहमरी एक दूजे के लिए बने थे। दोनों का अस्तित्व एक-दूजे में घुलमिल गये थे। गहमरी और खलील की बैठकी में गीतों की रचना और उनका धुन, एक साथ तैयार किया जाता । दोनों कलाकार साथ-साथ रातभर गीतों में सुधार करते और मांजते । गहमरी सुबह चार से छः बजे तक गीतों की रचना करते। गहमरी के कई गीत रचना का मूलमंत्र खलील ने सुझाया है, यह तथ्य भोजपुरी समाज को शायद पता न हो। गुरु-चेले के विमर्ष से भोलानाथ गहमरी ने जो गीत लिखा, और जिसे गाकर खलील अमर हो गये, उसके पीछे की कहानी उनके बेटे आजाद बताते हैं। वह चश्मदीद हैं एक वाकये के । कहते हैं कि अब्बा ने गहमरी से कहा, ‘गुरुजी, कहां तुझे ढूंढू, कहां तुझे पाऊं, गाने को सुन मेरे दिल में एक भाव आया है- कवना खोतवा में लुकइलू । भोलानाथ जी ने जब खलील की बात सुनी तो एकदम से उचक गये । बोले, वाह! अद्भुत गीत बनेगा। इसे लिखता हूं। और तब वह यादगार गीत लिखा गया-
कवना खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई ।
बन-बन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं, ढूँढलीं नदी के तीरे,
साँझ के ढूँढलीं, रात के ढूँढलीं, ढूँढलीं होत फजीरे
जन में ढूँढलीं, मन में ढूँढलीं, ढूँढलीं बीच बजारे,
हिया हिया में पैस के ढूँढलीं, ढूँढलीं बिरह के मारे
कवने अतरे में, कवने अतरे में समइलू, आहि रे बालम चिरई ।
गीत के हर घड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलन से,
छंद छंद लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से
किरन किरन से जाके पूछलीं, पूछलीं नील गगन से,
धरती और पाताल से पूछलीं, पूछलीं मस्त पवन से
कवने सुगना पर, कवने सुगना पर लुभइलू, आहि रे बालम चिरई ।
मंदिर से मस्जिद तक देखली, गिरजा से गुरूद्वारा,
गीता और कुरान में देखलीं, देखलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्ला तक देखलीं, देखलीं घरे कसाई,
सगरी उमिरिया छछनत जियरा, कैसे तोहके पाईं
कवने बतिया पर, कवने बतिया पर कोन्हइलू, आहि रे बालम चिरई ।
कवने खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई ।
आहि रे बालम चिरई, आहि रे बालम चिरई ॥
मोहम्मद आजाद बताते हैं एक बार अब्बा आकाषवाणी केन्द्र, कलकत्ता द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में वहां गये थे। वहां उनकी मुलाकात बंगाल के मशहूर बाउल गायक पूरनचंद बाउल से हुई। पूरनचंद ने एक गीत गाया-गोले माले, गोले माले प्रीत करो ना । वापस आकर उस गीत के भाव को खलील ने अपने गुरु को बताया। उनके गुरुजी के चेहरे पर चमक उतर आई। बस क्या था, गहमरी जी ने उसी रात, इलाहाबाद में खलील के घर पर स्थित नीम पेड़ के नीचे रातभर में एक गीत लिखा। बीच-बीच में खलील की मां चाय बनाकर पिलाती रहीं। वह गीत लिखा गया-
प्रीत में ना धोखाधड़ी, प्यार में ना झांसा। प्रीत करीं अइसे जइसे कटहर के लासा। बाद में इस गीत को खलील ने दिल खोलकर गाया। खुद झुमे और श्रोताओं को भी झुमाते रहे।
आधी-आधी रतिया में बोले ले कोयलिया, कुहुक उठे गोरिया, सेजरिया के छाड़ी, कुहुक उठे गोरिया। यह गीत बाम्बे में रिकार्ड किया गया था।
गहमरी का लिखा एक झूमर देखें –
डोले चइत-बइसखवा पवन,
हंसि मारे अगिनिया के बान….
धरती के जैसे ढरकलि उमिरिया,
तार-तार हो गइली धानी चुनरिया,
कुम्हला गइल फूलगेनवा बदन…..
दिनवा त दिनवा विकल करे रतिया,
चांदनी के छन-छन जस लागे छतिया,
कांपेला भोरहीं सुरुज से गगन…..
तलवा-तलैया के जियरा लुटाइल,
केकरो विरह नदिया दुबराइल,
पंछी पियासा के तड़पेला मन……
गहमरी के कई गीतों को मोहम्मद खलील ने गाकर न केवल भोजपुरी लोक गायकी की जनपक्षधर थाती को बचाया था अपितु गहमरी के लेखन को बेहतर मुकाम तक पहुंचाया भी था।
बहुत कम दिनों में मोहम्मद खलील के कंठ ने, भोजपुरी समाज को दीवाना बना दिया था। उनकी गायकी का सूफियाना अंदाज, खनक, आरोह और अवरोह, हर श्रोता को अंदर तक चहका देता। मन हरिहर हो जाता। खलील, फूहड़पन से दूर, परंपरागत भोजपुरी लोक गायकी को साधते थे। वह उनमें छेड़छाड़ नहीं करते। परंपरागत वाद्ययंत्रों को अपनाते और लोकगीतों को लोक में समाहित कर देते। आजकल के भोजपुरी गायकों की तरह इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों जैसे कैशियो, बेंजो आदि का इस्तेमाल उन्होंने कभी नहीं किया यानी कहीं कोई बनावटीपन नहीं। बेशक उन्होंने बाजार के साथ बाजारू नहीं बने, लेकिन लोक से ऐसे जुड़े कि आज भी उन जैसे भोजपुरी गायक का कोई दाहिना नहीं मिला। अब मोहम्मद खलील के कई आॅडियो प्रकाश में आ चुके हैं। संभव है आने वाले दिनों में उनके गाये बाकी गीतों को भी आकाशवाणी केन्द्रों द्वारा उपलब्ध कराया जाये।
मोहम्मद नौशाद का जन्म लखनऊ का है। इसलिए वह भोजपुरी गायकी के करीबी थे। वह मुहम्मद खलील की गायकी से बहुत प्रभावित थे और एकाध बार उन्हें बम्बई बुलाये थे। कहा जाता है कि 1971 के आसपास मोहम्मद खलील को नौशाद मुंबई ले गए। खलील अपनी मंडली के साथ गए थे। नगाड़ा भी साथ था। फिल्मों के लिए नौशाद उनकी गायकी में बदलाव चाहते थे। खलील को वह भाया नहीं और वह जल्द बंबइया फिल्मीस्तान का दर्शन कर लौट आये थे । आजाद बताते हैं कि अब्बा एक गीत गाते थे-कहिया ले मिलब बलमू…………. फंसिया में जिंनगी हमार, मोरा रसिया हो कि फंसिया में जिंनगी हमार। इस गीत को सुन संगीत निर्देशक नौशाद ने मजरूह सुल्तानुपुरी को गीत लिखने को कहा । खलील के गाये गीत में हेर-फेर कर गीत लिखा गया- ऐसा फंदा मारे गोरी दिल पर तेरा प्यार कि फांसी पर लटके जियरा हमार और इस गीत को मोहम्मद रफी और आशा भोसले ने गाया, फिल्म ‘तांगेवाला’ में जो 1972 में सिनेमा घरों में प्रदर्शित हुई।
गहमरी के गीतों और खलील की गायकी में गांव है, गांव का जीवन है, सुबह-शाम और खेत-खलिहान मुख्य स्वर था। जैसे बेकल उत्साही का गीत, ‘गंवई में लागल बा अगहन क मेला, गोरी झुकि-झुकि काटेलीं धान, खेतिया भइल भगवान, हो गोरी झुकि-झुकि काटेली धान’ गहमरी का लिखा और खलील का गाया एक पुरबी गीत देखें, जिसमें खेत-खलिहान में फंसी स्त्री, अपने पति वियोग में क्या कहती है-
गेंहुवा के बलिया पाकी, अमवा बऊरी गइले,
खेतिया में नाचे अरहरिया हो, संवरिया मोरे, हो गइले गुलरी के फूल।
दमके अंगनवा मोरा, झमके गहनवा मोरा
निरखे जवनिया त अंजोरिया हो, संवरिया मोरे…. ।
फुलवन में रोवे गजरा, अंसुवन में सोहे कजरा
मदन में भीजेला चुनरिया हो, संवरिया मोरे……….।
चंदवा चुरावे बिंदिया, रतिया ना आवे निंदिया
अगिनी दिखावेला सेजरिया हो, संवरिया मोरे……।
पति वियोग वेदना के गीतों में इस गीत को खलील ने विभोर कर देने वाला स्वर दिया है-
बलमू परदेसिया, बलमू परदेसिया
ना जाने कजरा के मोल, बलमू हमरो परदेसिया
हथवा झमकेला हरि-हरि चुड़िया, मुंदरी अंगुरिया में गोल
कंगना खनक उठे मनवा के अंगना, सुने ना पयलिया के बोल, बलमू हमरो…..
रहि-रहि मंगिया में टीहुके सेंदुरवा अंगिया बहकि उठे मोर
उड़ि-उड़ि अंचरा कहे सुन सखिया, सेजिया सुनेना अनमोल, बलमू हमरो….
झुलनी छमक उठे नथिया के कगरी, झांके झमकिया की ओर
पंइया के बिछुवा संइया के पूछेे, बूझे नाही अंखिया के लोर, बलमू हमरो…..
इस गीत के रचयिता भी भोलानाथ गहमरी हैं।
खलील साहब, गीतों के चयन में सावधान थे । उन्होंने कबीर के निर्गुनों को भी स्वर दिया है। स्त्री संदर्भों या पात्रों की ओर से गाते हुए परंपरागत लोक गीतों में स्त्री प्रधान परंपरा को निभाते हैं । जैसे- छिंटिया पहिन गोरी बिटिया हो गइलीं या फिर ले ले अइह बालम बजरिया से चुनरी (लेखक-भोलानाथ गहमरी), या फिर लाली लाली बिंदिया जैसे गीतों में खलील भोजपुरी गायकी को निखारते हैं। लागल गंगा जी क मेला, छोड़ा घरवा क झमेला ! या हँसि-हँसि बोले कुबोलिया, पापी रे छलिया जैसे गीत, खलील की भोजपुरी गायकी के धरोहर बन गए। मोती बी.ए., भोलानाथ गहमरी, हरिराम द्विवेदी, महेंद्र मिश्र, राहगीर बनारसी, युक्तिभद्र दीेक्षित, जनार्दन प्रसाद अनुरागी जैसे भोजपुरी गीतकारों के गीतों को खलील ने न सिर्फ अपनी गायकी में परोसा, बल्कि उन गीतों को ऊंचाई प्रदान किया। यह अनायास नहीं था कि उमाकांत मालवीय, शंभूनाथ सिंह, उमाशंकर तिवारी, ठाकुरप्रसाद सिंह, श्रीधर शास्त्री जैसे हिंदी के गीतकार भी खलील के घर बैठकी करते थे इलाहाबाद में।
मोहम्मद खलील अपनी गायकी की शुरुआत सरस्वती वंदना से शुरू करते थे। ‘सुमिरीला शारदा भवानी, पत राखीं महरानी’ भोजपुरी क्षेत्र की लोकप्रिय सरस्वती वंदना थी । ‘माई मोरे गीतिया में अस रस भरि द, जगवा क झूमे जवानी !’ भी एक और वंदना थी।
देखा जाये तो खलील जैसी भोजपुरी गायकी परंपरा अब गायब है। उन्हीं के शब्दों में कहा जा सकता है कि -वह गायकी लुका गई है।
उनके स्वर में यह मार्मिक निर्गुन गीत, मन को सुकुन देता था-
अइसन पलंगिया बनइहा बलमुवा
हिले ना कवनो अलंगीया हो राम
हरे-हरे बसवा के पाटिया बनइहा
सुंदर बनइहा डसानवा
ता उपर दुलहिन बन सोइब
उपरा से तनिहा चदरिया हो राम
अइसन पलंगीया…..
पहिले तू रेशम के साडी पहिनइह
नकिया में सोने के नथुनिया
अब कइसे भार सही हई देहियाँ
मती दिहा मोटकी कफनिया हो राम
अईसन पलंगिया…….
लाल गाल लाल होठ राख होई जाई
जर जाई चाँद सी टिकुलिया
खाड़ बलम सब देखत रहबा
चली नाही एकहू अकिलिया हो राम
अइसन पलंगिया……..
केकरा के तू पतिया पेठइबा
केकरा के कहबा दुलहिनिया
कवन पता तोहके बतलाइब
अजबे ओह देस के चलनिया हो राम
अइसन पलंगिया……..
चुन चुन कलियन के सेज सजइहा
खूब करिहा रूप के बखानवा
सुंदर चिता सजा के मोर बलमू
फूंकी दिहा सुघर बदनियाँ हो राम
अइसन पलंगिया…….
(उपरोक्त निर्गुन के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि यह गहमरी द्वारा रचित है तो अब कुछ लोग कहतेे हैं की टाउन डिग्री कालेज बलिया के किसी प्रोफेसर द्वारा लिखा गया है।)
आज भी खलील के वंशज उनकी गायकी परंपरा को निभा रहे हैं। मोहम्मद आजाद का बेटा फिरोज खान फिल्मों में म्युजिक अरेंजर है।
आज तेरहवें लोकरंग आयोजन में पूर्वांचल के इन दोनों विभूतियों को हम याद कर रहे हैं और इस आयोजन को उन्हें समर्पित कर रहे हैं।
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा