पूर्वी उत्तर प्रदेश का विद्रोही स्वर, रामाधार त्रिपाठी `जीवन´(1903 ई0 सं 1977 ई0) Ramadhar Tripathi ‘Jeevan’
गोरखपुर जिले के गजपुर गांव में जन्मे `जीवन´ जी पर आजादी की लड़ाई का प्रभाव पड़ा था । `जीवन´ जी लाला लाजपत राय और लाला हरदयाल की क्रान्तिकारी विचारधारा से आप्लावित थे । उनकी कविताओं में शोषित जन की पीड़ा थी तो मुक्ति की उत्कंठा भी।
वे कहते थे कि –
यदि कला तुम्हारी जीर्ण-शीर्ण जर्जर जीवन में
नई चेतना, नई जिन्दगी, नये जागरण प्राण दे सके
एक नया निर्माण दे सके
तो कला कला है
अगर नहीं तो कला व्यर्थ है, एक बला है।
`जियरा के पीर जनि खेलु रे पपिहरा, मोर-तोर एक जिनगानी रे पपीहरा´ या `हमरी नगरिया न आउ रे फागुनवा, जिनगी भइल बरसात रे´ जैसे गीतों के रचइता `जीवन´ जी की सुप्रसिद्ध प्रबंध रचना `तन्दुल´ 1942 में प्रकाशित होकर आयी जिसमें कृष्ण-सुदामा जैसे पौराणिक आख्यानों के माध्यम से उन्होंने समाजवादी विचारधारा की ओर अपने झुकाव को प्रकट किया ।
`पामर पूंजीवाद ! नाश हो तेरा जग से
अरे विश्व उन्माद ! नाश हो तेरा जग से ।
अपनी ही धुन की धारा में बहने वालों
संभलो, संभलो ओ महलों में रहने वालों ।
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अरे साम्य का तख्त कहां है, ताज कहां है?
मानवता का मधुर मनोरम राज कहां है ?
जीवन जी को परिवारिक सुख कभी नसीब न हुआ । आर्थिक विपन्नता में जीते जीवन जी का बेटा उपेक्षित ही रहा । राप्ती नदी के कटान में खेती समा गई । पिता श्री गणपति त्रिपाठी और माता श्रीमती सुखराजी के पास इतना धन न था कि वे बेटे को ठीक से पढ़ा सकें । जीवन जी ने गांव की पाठशाला से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की । बड़े होकर ख्याति प्राप्त साहित्यकार मन्नन द्विवेदी `गजपुरी´ के अल्पकालिक सानिध्य में कविता करने लगे ।
कुछ दिन तक पहलवानी की फिर पेट पालने के लिए गाड़ीवान बने और गुड़ का व्यापार किया । जीवन जी ने अपने पचास वर्षो की लम्बी काव्य यात्रा में ब्रजभाषा काव्य का अवसान, खड़ी बोली का उत्कर्ष, द्विवेदी युग और छायावाद का अभ्युदय, प्रगतिवाद का दर्प और नई कविता का तेवर देखा था ।
उनके मुख्य सग्रह हैं- धूप-छांह (1947), तूलिका (1945),`गीत-बेला´ (1961), पंख और पांव (1973), कलम और कुदाल (1973), जिन्दगी के गीत (1975) ।
ऐसे विद्रोही स्वर को याद करते हुए हमनें `लोकरंग 2011´ को जीवन जी को समर्पित किया ।