लोककवि बिसराम के बिरहे लोक-साहित्य में जनसामान्य के मनोभावों, उनके उद्वेगों, जिजीविषा की श्रम संस्कृति की एक विशिष्ट आकृति रची-बसी है इसलिये वह सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से शिष्ट साहित्य से कहीं आगे और पूर्व का होने का गौरव प्राप्त करता है ।
बिसराम का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ नगर के दक्षिण-पूर्व स्थित, टोंस(किताबी नाम-तमसा)नदी के तट पर स्थित जयरामपुर गांव में एक संभ्रांत भूमिहार परिवार में वर्ष 1924-25 के आसपास हुआ था । यह गांव शहर से दो से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।
राहुल सांस्कृत्यायन उनका जन्म 1920 के आसपास मानते हैं । बिसराम की मृत्यु 1947 में हुई थी, यह निर्विवाद है । बिसराम के माता-पिता ने उन्हें पढ़ाने का भरपूर प्रयास किया किंतु उनका मन पढ़ाई में लगा नहीं । वह चार तक ही पढ़ पाये । युवा होने पर उनका विवाह हुआ किंतु वर्ष भीतर ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया ।
राहुल संस्कृत्यायन के अनुसार विवाह के चार वर्ष बाद पत्नी का देहान्त हुआ था । कहा जाता है कि दोनों में अद्भुत प्रेम था। बिसराम पत्नी वियोग को सह नहीं सके और वही असह्य वेदना उसकी कविता में फूट निकली। उन्होंने भोजपुरी बिरहा छंद में अपनी हृदय-पीड़ा को चित्रित किया है। पंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ‘‘वह न जाने कितने बिरहे अपने पांच-छः वर्ष के विधुर जीवन में गाता रहा । उसे लिखने का ख्याल नहीं हुआ। वह गांव की पाठशाला में कक्षा चार तक पढ़ा था, लिपिबद्ध कर सकता था। अफसोस की बात तो यह थी कि इस गुदड़ी के लाल की पहचान होने पर भी लोगों ने 16 विरहों से अधिक नहीं जमा किया ।
पत्नी के देहांत के बाद बिसराम बहुत दिनों तक जी भी न सके।’’ जब तक लोगों को उनके बिरहों के महत्व के बारे में जानकारी मिली वह लोक कवि काल के गाल में समाहित हो चुका था। ….. जिस दिन बिसराम की पत्नी की लाश जलाने के लिए निकाली गयी, उस दृश्य को बिसराम ने इस प्रकार व्यक्त किया है’’ –
आजु मोरी घरनी निकरली मोरे घर से,
मोरा फाटि गइले आल्हर करेज।
राम नाम सत सुनि मैं गइलों बउराई,
कवन रछसवा गइल रानी के हो खाई ।।
सुखि गइलें आंसु नाहीं खुलेले जबनिया,
कइसे के निकारों मैं तो दुखिया बचनिया।।
आजु उनसे नाता टूटि गइलें मोरे भइया,
आजु मोरी छुटि गइली उनसे सगइया ।।
मोरी अहियन से उनकी चिता धुंधुंअइलीं,
चितवा पे सोवल रानी राखी हाई गइली ।।
कहै ‘बिसराम’ नाहीं धनी रहली राम,
रहलें चारि जना के परिवार ।।
ओही में से घात एक ठे कइले पापी देवा,
नाहीं कइलें मोरे गरीबी पर विचार ।।
इन पंक्तियों में व्यक्त अनुभूति हमें दहला देती है । बिसराम की आयु उस समय 20-22 से अधिक नहीं थी । खाते-पीते घर के लड़के थे। दूसरा ब्याह होने में कोई दिक्कत नहीं थी और घरवाले दूसरा ब्याह करने के लिए जोर भी देते थे, लेकिन बिसराम का कहना था –
पिताजी कहें बेटा करबे बियहवा दूसर,
काहें होल ओमें लवलीन।
एतनो त बतिया नाहीं जनता मोरे बाबा,
उनके सुरतिया मनवा में हो आसीन।
बिसराम के किसी औलाद का जिक्र नहीं है । पत्नी के मरने के बाद उनके मां-बाप दूसरी शादी की भी बात किये थे । जाहिर है औलाद होने पर मां-बाप इतनी जल्दी ऐसे फैसले पर न पहुंचते । जो भी हो इतना तो तय है कि बिसराम पत्नी से बेहद प्यार करते थे औ उसके मरने के कुछ सालों बाद ही बिलख-बिलख उसी पीपड़ के पेड़ के नीचे मर गये थे । बिसराम को सच्चे कवि का हृदय प्राप्त था। अनंत वियोग के क्षण में उन्होंने प्रकृति के मनोरम दृश्यों का हृदयग्राही चित्रण किया है।
जिस पीपल के नीचे बिसराम की पत्नी को जलाया गया था उसके नीचे अक्सर वह जाकर आंसू बहाते रहते थे। पीपल को संबोधित करते हुए उन्होंने एक बिरहा लिखा है – जुग-जुग रहिह एही घाट प पिपरवा, एक ठे तू ही बाट संघिया हमार । लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने लोकरंग 2012 को बिसराम को समर्पित किया ।